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________________ विपाकं सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध देते हैं, इन्द्रकील (नगर के दरवाजों का एक अवयव जिसके आधार से दरवाजे के दोनों किवाड़ बंद रह सके) दृढ था और निपुण शिल्पियों द्वारा उनका निर्माण किया गया था, वहां हु से शिल्पी निवास किया करते थे, जिससे वहां के लोगों की प्रयोजन सिद्धि हो जाती थी इसीलिए वह नगर लोगों के लिए सुखप्रद था । श्रृंगाटकों- त्रिकोण मार्गों, त्रिकों-जहां तीन रास्तें मिलते हों, ऐसे स्थानों, चतुष्कों-चतुष्पथों, चत्वरों-जहां चार से भी अधिक रास्ते मिलते हों ऐसे स्थानों और नाना प्रकार के बर्तन आदि के बाजारों से वह नगर सुशोभित था। वह अति रमणीय था । वहां का राजा इतना प्रभावशाली था कि उसने अन्य राजाओं के तेज को फीका कर दिया था । अनेक अच्छे अच्छे घोड़ों, मस्त हाथियों, रथों, गुमटी वाली पालकियों, पुरुष की लम्बाई जितनी लम्बाई वाली पालकियों, गाड़ियों और युग्यों अर्थात् गोल्ल देश की एक प्रकार की पालकियों से वह नगर युक्त था। उस नगर के जलाशय नवीन कमल और कमलिनियों से सुशोभित थे । वह नगर श्वेत और उत्तम महलों से युक्त था। वह नगर इतना स्वच्छ था कि अनिमेष - बिना झपके दृष्टि से देखने को दर्शकों का मन चाहता था। वह प्रासादीय- चित्त को प्रसन्न करने वाला, दर्शनीय उसे देखते देखते आंखें नहीं थकती थी, अभिरूप उसे एक बार देख : लेने पर भी पुनः देखने की लालसा बनी रहती थी, प्रतिरूप उसे जब भी देखा जाय तब भी वहां नवीनता ही प्रतीत होती थी, ऐसा वह सुंदर नगर था । २०८ - सव्वोउय० - यहां का बिंदु 'सव्वोउयपुप्फफल समिद्धे रम्मे णंदणवणप्पगासे पासाईए दरिसणिज्जे अभिरू पडिलवे' इस पाठ का परिचायक है। वह उद्यान सर्वर्तुकपुष्पफलसमृद्ध (सब ऋतुओं में होने वाले पुष्पों और फलों से परिपूर्ण एवं समृद्ध ) रम्य ( रमणीक ) नंदनवन प्रकाश (मेरु पर्वत पर स्थित नंदनवन की तरह शोभा को प्राप्त करने वाला) प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप था । . 'महया०' यहां के बिंदु से निम्न पदों का ग्रहण हुआ है - - हिमवंत-महंत - मलयमंदरमहिंदसारे अच्चंत - विसुद्धदीहराय - कुलवंससुप्पसूए णिरंतरं रायलक्खण-विराइअंगमंगे बहुजणबहुमाणे पूजिए सव्वगुणसमिद्धे खत्तिए मुइए मुद्धाहिसित्ते माउपिउसुजाए दयपत्ते सीमंकरे सीमंधरे खेमंकरे खेमंधरे मणुस्सिंदे जणवयपिया जणवयपाले जणवबपुरोहिए सेउकरे केउकरे णरपवरे पुरिसवरे पुरिससीहे पुरिसवग्धे पुरिसासीविसे पुरस पुंडरीए पुरिसवरगंधहत्थी अड्डे दित्ते वित्ते विच्छिण्ण विउल भवण सयणासणजाणवाहणाइणे बहुधण बहुजायरूवरयए आओगपओगसंपत्ते विछड्डियभत्तपउरभत्तपाणे बहुदासदासी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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