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________________ बीओ सुयक्खंधो-द्वितीय श्रुतस्कंध सुबाहु णामं पटमं अज्झयणं सुबाह नामक प्रथम अध्ययन उत्थानिका - विपाक श्रुत के दो विभाग हैं - १. दुःखविपाक और २. सुखविपाक। जिसमें हिंसा आदि द्वारा उपार्जित अशुभ कर्मों के दुःखरूप विपाक-फल वर्णित हों उसे दुःखविपाक कहते हैं और जिसमें अहिंसा आदि द्वारा उपार्जित शुभ कर्मों के विपाक-फल का वर्णन किया गया है उसे सुखविपाक कहते हैं। ___ सुख और दुःख दोनों परस्पर विरोधी-विपक्षी हैं। सुख की प्राप्ति का कारण शुभ कर्म है तो दुःख प्राप्ति का कारण अशुभ कर्म है। सुख की प्राप्ति सुखजनक कृत्यों को अपनाने से होती है। जब तक सुख के साधनों को अपनाया नहीं जाता तब तक सुख की प्राप्ति नहीं होती। सुख प्राप्ति के लिये दुःख के साधनों का त्याग करना उतना ही आवश्यक है जितना कि सुख के साधनों को अपनाना। दुःख के साधनों का त्याग कर, सुख के कारणों को अपना कर ही जीव सुखी बन सकता है। . संसार का प्रत्येक प्राणी सुखाभिलाषी है। सुख उसे प्रिय है और दुःख उसे अप्रिय। अतः उसके सारे प्रयत्न सुख प्राप्ति के लिये ही होते हैं। महापुरुषों ने सुख प्राप्ति के जो उपाय बताये हैं उनको अपना कर ही जीव सच्चे सुखों को प्राप्त कर सकता है। विपाक सूत्र में इसी दृष्टि से दुःखविपाक और सुखविपाक ऐसे दो विभाग करके सूत्रकार ने दुःख और सुख के साधनों का एक विशिष्ट पद्धति से निर्देश किया है। दुःखविपाक के दश अध्ययनों में दुःख और उसके साधनों का निर्देश करके साधकों को उसके त्याग की प्रेरणा दी गयी है जबकि सुखविपाक में सुख और उसके साधनों का निर्देश कर साधकों को उन्हें अपनाने की प्रेरणा की गयी है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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