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________________ २०२ - विपाक सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध ........................................................... होगा जहां तथारूप के संयमी संतों के संपर्क में आकर सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा। दीक्षित होकर सौधर्म देवलोक में उत्पन्न होगा। वहां से च्यव कर महाविदेह के एक कुलीन घर में जन्म लेगा और संयम की सम्यक् आराधना करके सकल कर्मों को क्षय करके सिद्धि गति को प्राप्त होगा। ___ अंत में आर्य सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बू स्वामी से कहते हैं - "हे जम्बू! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःखविपाक के अंजू नामक दसवें अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादन किया है। जैसा मैंने भगवान् से सुना, वैसा ही तुमको कहा है। इसमें मेरी निजी कोई कल्पना नहीं है।" आर्य सुधर्मा स्वामी के इस कथन को सुन कर जम्बूस्वामी ने विनयपूर्वक कहा - "सेवं भंते! सेवं भंते!" - हे भगवन्! आपने जो कुछ फरमाया वह सत्य है, यथार्थ है। 'सिज्झिहिइ जाव अंतं काहिई' में 'जाव' पद से बुज्झिहिइ, मुच्चिहिइ, परिणिव्वाहिइ सव्वदुक्खाणमंतं काहिइ' इन पदों का ग्रहण हुआ है जिनके अर्थ इस प्रकार है - १. सिज्झिहिइ - सब तरह से कृतकृत्य हो जाने के कारण सिद्धपद को प्राप्त करेगा। . २. बुज्झिहिइ - केवलज्ञान के आलोक से लोकालोक का ज्ञाता होगा। ३. मुच्चिहिइ - सभी प्रकार के ज्ञानावरणीय आदि कर्मों से मुक्त हो जायेगा। ४. परिणिव्वाहिइ - समस्त कर्मजन्य विकारों से रहित हो जायेगा। ५. सव्वदुक्खाणमंतं काहिइ - मानसिक, वाचिक और कायिक सभी प्रकार के दुःखों का अंत कर देगा। . विपाकश्रुत के प्रथम श्रुतस्कंध में हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन आदि द्वारा उपार्जित अशुभ कर्मों के दुःखरूप विपाक-फल को प्राप्त करने वाले मृगापुत्र आदि दस जीवों का इन दस अध्ययनों में वर्णन किया गया है - १. मृगापुत्र २. उज्झितक ३. अभग्नसेन ४. शकट ५. वृहस्पति ६. नन्दिवर्धन ७. उम्बरदत्त ८. शौरिकदत्त ६. देवदत्ता और १०. अंजू। अंजूश्री नामक दसवें अध्ययन की समाप्ति के साथ ही विपाकश्रुत का यह दश अध्ययनात्मक प्रथम श्रुतस्कंध समाप्त हुआ। ॥ दशम अध्ययन समाप्त। ॥ विपाकश्रुत का दुःखविपाक नामक प्रथम श्रुतस्कंध समाप्त॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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