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विपाक सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध ........................................................... अंजुं पासइ णवरं अप्पणो अट्टाए वरेइ जहा तेयली जाव अंजूए भारियाए सद्धिं उप्पिं जाव विहरइ॥१६॥
भावार्थ - वह वहां से निकल कर इसी वर्द्धमान नगर में धनदेव सार्थवाह की प्रियंगू भार्या के उदर में कन्या रूप से उत्पन्न हुई। तदनन्तर उस प्रियंगू भार्या ने नौ मास लगभग परिपूर्ण होने पर एक बालिका को जन्म दिया जिसका नाम 'अंजूश्री' रखा गया। उसका शेष वर्णन देवदत्ता की तरह समझ लेना चाहिये। तदनन्तर विजयमित्र राजा अश्वक्रीडा के निमित्त जाते हुए वैश्रमणदत्ता की तरह अंजूश्री को देखते हैं उसमें इतनी विशेषता है कि वह उसे अपने लिये मांगते हैं। जिस प्रकार तेतलि यावत् अंजूश्री नामक बालिका के साथ उन्नत प्रासाद में यावत् सानंद समय व्यतीत करते हैं।
विवेचन - अंजूश्री का जीवन वृत्तांत भी देवदत्ता के समान ही है। ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र के चौदहवें अध्ययन में वर्णित तेतलिपुत्र के समान विजयमित्र राजा अंजूश्री की अपनी भार्या के रूप में याचना करते हैं और अंजूश्री के साथ पाणिग्रहण करके विजयमित्र मानव संबंधी उदार विषय भोगों को भोगते हुए समय व्यतीत करने लगे। .
अंजूश्री की महावेदना तए णं तीसे अंजूए देवीए अण्णया कयाइ जोणिसूले पाउन्भूए यावि होत्था। तए णं से विजए राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-गच्छह णं देवाणुप्पिया! वद्धमाणपुरे णयरे सिंघाडग जाव एवं वयह-एवं खलु देवाणुप्पिया! विजय० अंजूए देवीए जोणिसूले पाउन्भूए जो णं इच्छइ वेज्जो वा ६.....जाव उग्घोसेंति।
तए णं ते बहवे वेज्जा० ६ इमं एयारूवं सोच्चा णिसम्म जेणेव विजए राया तेणेव उवागच्छंति० उप्पत्तियाहिं० परिणामेमाणा इच्छंति अंजूए देवीए जोणिसूलं उवसामित्तए णो संचाएंति उवसामित्तए। तए णं ते बहवे वेज्जा य ६ जाहे णो संचाएंति अंजू० जोणिसूलं उवसामित्तए ताहे संता तंता परितंता जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया। तए णं सा अंजूदेवी ताए वेयणाए अभिभूया
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