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________________ दसवां अध्ययन - अंजूश्री का सुखोपभोग १६७ ........................................................... वण्णओ। तए णं सा पुढवीसिरी गणिया इंदुपुरे णयरे बहवे राईसर जाव प्पभियओ बहूहिं चुण्णप्पओगेहि य जाव आभिओगेत्ता उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणी विहरइ। तए णं सा पुढवीसिरी गणिया एयकम्मा एयप्पहाणा एयविज्जा एयसमायारा सुबहु समज्जिणित्ता पणतीसं वाससयाई परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा छट्ठीए उक्कोसेणं० रइयत्ताए उववण्णा॥१६४॥ भावार्थ - हे गौतम! इस प्रकार निश्चय ही उस काल और उस समय इसी जंबूद्वीप नामक द्वीप के अंतर्गत भारतवर्ष में इन्द्रपुर नाम का एक नगर था। वहां इन्द्रदत्त राजा राज्य करता था। नगर में पृथ्वीश्री नाम की एक गणिका-वेश्या थी जिसका वर्णन पूर्वानुसार समझ लेना चाहिये। वह पृथ्वीश्री गणिका इन्द्रपुर नगर में अनेक ईश्वर, तलवर यावत् सार्थवाह आदि लोगों को चूर्ण आदि के प्रयोगों से वश में करके मनुष्य संबंधी उदार-मनोज्ञ कामभोगों को भोगती हुई समय व्यतीत कर रही थी। तदनन्तर वह पृथ्वीश्री गणिका एतत्कर्मा, एतत्प्रधान, एतद्विध, एतत्समाचार बनी हुई अत्यधिक पाप कर्मों का उपार्जन कर पैंतीस सौ (३५००) वर्ष की परम आयु भोग कर कालमास में काल करके छठी नरक में २२ सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति वाले नैरयिकों में नैरयिक रूप से उत्पन्न हुई। विवेचन - वशीकरण के लिये अमुक प्रकार के द्रव्यों का मंत्रोच्चारणपूर्वक या बिना मंत्र के जो सम्मेलन किया जाता है उसे चूर्ण कहते हैं। यह चूर्ण जिस व्यक्ति पर प्रक्षेप किया जाता है या ख़िलाया जाता है वह प्रक्षेप करने वाले या खिलाने वाले के वश में हो जाता है। पृथ्वीश्री नामक वेश्या ने काममूलक विषयवासना की पूर्ति के लिये गुप्त या प्रकट रूप से जिन पाप कर्मों को एकत्रित किया उसके फलस्वरूप वह छठी नरक में उत्पन्न हुई और अपने कृत कर्मों का फल भोगा। अंजूश्नी का सुखोपभोग सा णं तओ अणंतरं उव्वट्टित्ता इहेव व वद्धमाणपुरे णयरे धणदेवस्स सत्थवाहस्स पियंगुभारियाए कुच्छिंसि दारियत्ताए उववण्णा। तए णं सा पियंगुभारिया णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं दारियं पयाया, णामं अंजुसिरी, सेसं जहा देवदत्ताए। तए णं से विजए राया आसवाह० जहा वेसमणदत्ते तहा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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