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________________ आठवां अध्ययन - शौरिकदत्त की हिंसक प्रवृत्ति १६५ भावार्थ - उस समय समुद्रदत्ता भार्या जात निद्रुता - मृतवत्सा थी, उसके बालक जन्म लेते ही मर जाया करते थे। जैसे गंगादत्ता को विचार उत्पन्न हुए वैसे ही समुद्रदत्ता के भी हुए। पति से पूछ कर, मन्नत मान कर तथा दोहद की पूर्ति कर समुद्रदत्ता एक बालक को जन्म देती है। शौरिक यक्ष की मन्नत मानने से बालक का जन्म होने के कारण माता-पिता ने उसका शौरिकदत्त नाम रखा। तत्पश्चात् पांच धायमाताओं से परिगृहीत वह शौरिक बालक यावत् बाल भाव को त्याग कर, विज्ञान की परिणत-परिपक्व अवस्था को प्राप्त हुआ और युवावस्था को प्राप्त हुआ। विवेचन - दुःखविपाक के सातवें अध्ययन में वर्णित गंगादत्ता के वर्णन के समान ही समुद्रदत्ता का भी वर्णन समझ लेना चाहिये। अंतर इतना है कि गंगादत्ता ने उम्बरदत्त यक्ष की आराधना की तो समुद्रदत्ता ने शौरिक यक्ष की मनौति मानी। कुटुम्ब जागरणा, यक्ष आराधन का विचार, पति की आज्ञा लेकर यक्ष की मन्नत मानना, गर्भ स्थिति होने पर दोहद उत्पन्न होना उसकी पूर्ति करना, पुत्र जन्म, नामकरण और युवावस्था प्राप्त करने तक का सारा वृत्तांत गंगादत्ता के समान ही है। शौरिकदत्त की हिंसक प्रवृत्ति तए णं से समुद्ददत्ते अण्णया कयाइ कालधम्मुणा संजुत्ते। तए णं से सोरियदत्ते दारए बहूहिं मित्तणाइ० रोयमाणे० समुद्ददत्तस्स णीहरणं करेइ लोइयाई मयकिच्चाई करेइ, अण्णया कयाइ सयमेव मच्छंधमहत्तरगत्तं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ। तए णं से सोरियदत्ते दारए मच्छंधे जाए अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे॥१४०॥ कठिन शब्दार्थ - मच्छंधमहत्तरगत्तं - मत्स्य बंधो-मच्छीमारों के महत्तरकत्व-प्रधानत्व की। भावार्थ - तदनन्तर किसी अन्य समय समुद्रदत्त काल धर्म को प्राप्त हुआ तब रुदन, आक्रन्दन और विलाप करते हुए शौरिकदत्त बालक ने अनेक मित्रों, ज्ञातिजनों, स्वजनों संबंधिजनों एवं परिजनों के साथ समुद्रदत्त का निस्सरण किया-अरथी निकाली और दाहकर्म एवं अन्य लौकिक मृतक क्रियाएं की। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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