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________________ सातवां अध्ययन - उम्बरदत्त रोगग्रस्त १५५ ........................................................... है। सांसारिक जीवन उसके लिये बंधन रूप होता है इसीलिये वह उसे अपनी प्रगति में बाधक समझता है। आध्यात्मिकता के पथ का पथिक साधक व्यक्ति आत्मा को परमात्मा बनाने में सहायक अर्थात् मोक्षमूलक प्रवृत्तियों को ही अपनाता है और सांसारिकता की पोषक प्रवृत्तियों में उसे कोई लगाव नहीं होता इसीलिये वह उससे दूर रहता है। देवपूजा सांसारिकता का पोषण करती है या करने में सहायक होती है इसीलिये जैन धर्म में देवपूजा का निषेध पाया जाता है। उम्बरदत्त रोगग्रस्त तए णं से सागरदत्ते सत्थवाहे जहा विजयमित्ते जाव काल० गंगदत्ता वि.....उंबरदत्ते णिच्छूढे जहा उज्झियए। ___तए णं तस्स उंबरदत्तस्स दारगस्स अण्णया कयाइ सरीरगंसि जमगसमगमेव सोलसरोगायंका पाउन्भूया, तंजहा-सासे कासे जाव कोढे। तए णं से उंबरदत्ते दारए सोलसहिं रोगायंकेहिं अभिभूए समाणे० जाव विहरइ। - एवं खलु गोयमा! उंबरदत्ते दारए पुरापोराणाणं जाव पच्चणुभवमाणे विहर।।१३२॥ भावार्थ - तदनन्तर वह सागरदत्त सार्थवाह जिस प्रकार विजयमित्र का वर्णन किया है उसी प्रकार काल धर्म से संयुक्त हुआ अर्थात् मर गया। गंगादत्ता भी काल धर्म को प्राप्त हुई। उम्बरदत्त भी घर से बाहिर निकाल दिया गया। जैसे उज्झितक कुमार का दूसरे अध्ययन में वर्णन किया गया है उसी प्रकार यहाँ भी समझ लेना चाहिये। तदनन्तर किसी समय उस उम्बरदत्त के शरीर में एक ही समय में सोलह प्रकार के रोगातंक-भयंकर रोग उत्पन्न हो गये। जैसे कि - १. श्वास २. खांसी यावत् कुष्ठ रोग। इन सोलह प्रकार के रोगांतकों से अभिभूत-व्याप्त हुआ उम्बरदत्त यावत् हस्त आदि के सड़ जाने से दुःखपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहा है। ___इस प्रकार निश्चय ही हे गौतम! उम्बरदत्त बालक पूर्वकृत पुरातन यावत् कर्मों को भोगता हुआ समय बीता रहा हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में उम्बरदत्त के माता-पिता का कालधर्म को प्राप्त होना, उसको Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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