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________________ १५४ विपाक सत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध फिर वह एक यक्ष की पूजा करने या मनौती मानने मात्र से किसी जीवित संतति को कैसे जन्म दे सकती है? क्या ऐसा मानने से कर्मसिद्धांत बाधित नहीं होता है? . . समाधान - आगमानुसार जीव को जो कुछ भी प्राप्त होता है वह अपने पूर्वोपार्जित कर्मों के कारण ही होता है। कर्महीन प्राणी (पुण्यहीन) लाख प्रयत्न करने पर भी मन इच्छित वस्तु . को प्राप्त नहीं कर सकता है जबकि कर्म के सहयोगी होने, शुभ कर्मों के उदय आने पर वह वस्तु उसे अनायास ही प्राप्त हो जाती है। अतः गंगादत्ता सेठानी को जो जीवित पुत्र की प्राप्ति हुई है वह उसके किसी पूर्व संचित पुण्य कर्म का ही परिणाम है फिर भले ही वह कर्म अनेकानेक संतानों के विनष्ट हो जाने के बाद उदय में आया हो। अर्थात् गंगादत्तां को जो.. जीवित पुत्र की उपलब्धि हुई वह उसके किसी पूर्व संचित पुण्यविशेष का ही फल समझना चाहिये। ऐसा मानने पर कर्म सिद्धांत में कोई बाधा नहीं आती है। ___ जो लोग पुत्रादि की प्राप्ति के लिये देवों की पूजा करते हैं, मन्नत मानते हैं और पूर्वोपार्जित किसी पुण्यकर्म के सहयोगी होने के कारण पुत्रादि की प्राप्ति हो जाने पर उसे देव प्रदत्त ही मान लेते हैं अर्थात् पुत्रादि की प्राप्ति में देव को उपादान कारण मान बैठते हैं वे नितान्त भूल करते हैं क्योंकि यदि पूर्वोपार्जित कर्म विद्यमान है तो उसमें देव सहायक बन सकता है किंतु यदि कर्म सहयोगी नहीं है तो एक बार नहीं अनेकों बार देवपूजा की जावे या देव की एक नहीं लाखों मनौतियाँ मान ली जाएं तो भी देव कुछ नहीं कर सकता। सारांश यह है कि किसी भी कार्य की सिद्धि में देव निमित्त कारण भले ही हो जाय परंतु वह उपादान कारण तो तीन काल में भी नहीं बन सकता। अतः देव को उपादान कारण समझने का विश्वास आगम सम्मत नहीं होने से हेय एवं त्याज्य है। शंका - किसी भी कार्य की सिद्धि में देव उपादान कारण नहीं बन सकता किंतु निमित्त कारण तो बन सकता है फिर देव पूजन का निषेध क्यों किया जाता है? समाधान - संसार में दो प्रकार की प्रवृत्तियाँ पाई जाती हैं - १. संसारमूलक और २. मोक्षमूलक। संसारमूलक प्रवृत्ति सांसारिक जीवन की पोषिका होती है जबकि मोक्षमूलक प्रवृत्ति आत्मा को उसके वास्तविक रूप में लाने अर्थात् आत्मा को परमात्मा बनाने का कारण बनती है। ___जैन धर्म निवृत्ति प्रधान धर्म है। वह आध्यात्मिकता की प्राप्ति के लिए सर्वतोमुखी प्रेरणा करता है। आध्यात्मिक जीवन का अंतिम लक्ष्य परम साध्य निर्वाण पद को उपलब्ध करना होता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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