SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छठा अध्ययन - नंदिषेण के रूप में जन्म १३३ विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में दुर्योधन जेलर के पाप पूर्ण कृत्यों का वर्णन कर उससे होने वाले कर्म बंध का फल बतलाया गया है। महाराजा सिंहरथ के राज्य में जो लोग चोरी करते, दूसरों की स्त्रियों का अपहरण करते, लोगों की गांठ कतर कर धन चुराते, राज्य को हानि पहुंचाने का यत्न करते तथा बाल हत्या और विश्वासघात करते उनको दुर्योधन क्रूरता एवं कठोरता पूर्वक दण्ड देता था। दुर्योधन के सम्मुख अपराधी के अपराध और उसके दण्ड का कोई मापदण्ड नहीं था। अपने विवेक शून्य अमर्यादित आचरण से काल करके दुर्योधन छठी नरक में २२ सागरोपम की स्थिति वाला नैरयिक बना और उसे नारकीय भीषण दुःखों को सहन करना पड़ा। नंदिषेण के रूप में जन्म से णं तओ अणंतरं उव्वट्टित्ता इहेव महुराए णयरीए सिरिदामस्स रण्णो बंधुसिरीए देवीए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववण्णे। तए णं बंधुसिरी णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं जाव दारगं पयाया। तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो णिव्वत्ते बारसाहे इमं एयारूवं णामधेज्जं करेंति होउ णं अम्हं दारगे णंदिसेणे णामेणं। तए णं से णंदिसेणे कुमारे पंचधाईपरिवुडे जाव परिवहइ। तए णं से मंदिसेणे कुमारे उम्मुक्कबालभावे जाव विहरइ जोव्व० जुवराया जाए यावि होत्था। तए णं से णंदिसेणे कुमारे रज्जे य जाव अंतेउरे य मुच्छिए इच्छइ सिरिदामं रायं जीवियाओ ववरोवित्तए सयमेव रज्जसिरिं कारेमाणे पालेमाणे विहरित्तए। तए णं से णंदिसेणे कुमारे सिरिदामस्स रण्णो बहूणि अंतराणि य छिद्दाणि य विवराणि य पडिजागरमाणए विहरइ।।११५॥ कठिन शब्दार्थ - अंतराणि - अन्तर-अवसर, छिद्दाणि - छिद्र अर्थात् जिस समय पारिवारिक व्यक्ति अल्प हों, विवराणि - विवर-जब कोई भी पास न हो। भावार्थ -तदनन्तर वह दुर्योधन चारकपाल का जीव नरक से निकल कर इसी मथुरा नगरी में श्रीदाम राजा की बंधुश्री देवी की कुक्षि में पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ। तब लगभग ६ मास परिपूर्ण होने पर बंधुश्री ने बालक को जन्म दिया। तदनन्तर बारहवें दिन माता-पिता ने उत्पन्न हुए बालक का नाम 'नन्दिषेण' रखा। तदनन्तर पांच धायमाताओं के द्वारा सुरक्षित बाल नन्दिषेण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy