SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विपाक सूत्र - प्रथम श्रुतस्कन्ध भावार्थ - तदनन्तर बहुत से राजा यावत् सार्थवाह आदि लोगों ने मिल कर बड़े समारोह के साथ उदयनकुमार का राज्याभिषेक किया। तब से उदयनकुमार हिमालय आदि पर्वत के समान महाप्रतापी राजा बन गया । तदनन्तर वह वृहस्पतिदत्त बालक उदयन राजा का पुरोहित कर्म करता हुआ सर्व स्थानों अर्थात् भोजन स्थान आदि सब स्थानों में, सर्वभूमिका - प्रासाद - महल की. प्रथम भूमिका - मंजिल से लेकर सातवीं भूमि तक यानी सभी भूमिकाओं में तथा अंतःपुर में इच्छानुसार बेरोकटोक गमनागमन करने लगा । १२० तदनन्तर उस वृहस्पतिदत्त पुरोहित का उदयन नरेश के अंतःपुर में समय, असमय, काल अकाल तथा रात्रि और संध्याकाल में स्वेच्छा पूर्वक प्रवेश करते हुए किसी समय पद्मावती देवी के साथ अनुचित संबंध भी हो गया । तदनुसार पद्मावती देवी के साथ वह उदार - यथेष्ट मनुष्य | संबंधी कामभोगों का सेवन करता हुआ समय व्यतीत करने लगा । इमं च णं उदायणे राया पहाए जाव विभूसिए जेणेव पउमावई देवी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता बहस्सइदत्तं पुरोहियं पउमावईदेवीए सद्धिं उरालाई भोगभोगाई भुंजमाणं पासइ पासित्ता आसुरुते तिवलियं भिउडिं णिडाले साहट्टु बहस्सइदत्तं पुरोहियं पुरिसेहिं गिण्हावेइ जाव एएणं विहाणेणं वज्झं आणवेइ, एवं खलु गोयमा ! बहस्सइदत्ते पुरोहिए पुरापोराणाणं जाव विहरइ ॥ १०६ ॥ भावार्थ - इधर किसी समय उदयन राजा स्नान आदि से निवृत्त होकर और समस्त आभूषणों से अलंकृत होकर जहां पद्मावती देवी थी वहाँ पर आया, आकर उसने पद्मावती देवी के साथ कामभोगों को भोगते हुए वृहस्पतिदत्त पुरोहित को देखा, देखकर वह क्रोध से तमतमा उठा और मस्तक पर तीन सल वाले तिउडी चढा कर वृहस्पतिदत्त पुरोहित को पुरुषों से पकड़वा कर यह इस प्रकार वध कर डालने योग्य है' ऐसी राजपुरुषों को आज्ञा देता है । हे गौतम! इस प्रकार वृहस्पतिदत्त पुरोहित पूर्वकृत दुष्ट कर्मों के फल को प्रत्यक्ष रूप से भोगता हुआ समय व्यतीत कर रहा है। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने वृहस्पतिदत्त के पूर्व भवों का वर्णन करते हुए अंत में कहा है कि 'हे गौतम! यह वृहस्पतिदत्त पुरोहित अपने किये हुए दुष्कर्मों का ही विपाक - फल भुगत रहा है।' तात्पर्य यह है कि यह पूर्व जन्म में महान् हिंसक था और इस जन्म में महान् व्यभिचारी तथा विश्वासघाती था । इन्हीं पापकर्मों का उसे यह दण्ड मिल रहा है। Jain Education International - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy