SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 133
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११२ विपाक सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध ........................................................... संसारो तहेव जाव पुढवीए। से णं तओ अणंतरं उव्वट्टित्ता वाणारसीए णयरीए मच्छत्ताए उववज्जिहिइ। से णं तत्थ णं मच्छबंधिएहिं वहिए तत्थेव वाणारसीए णयरीए सेट्टिकुलंसि पुत्तत्ताए पच्चायाहिइ बोहिं बुद्धे० पव्व० सोहम्मे कप्पे.....महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ॥ णिक्खेवो॥८॥ . ॥ चउत्थं अज्झयणं समत्तं॥ कठिन शब्दार्थ - कूडग्गाहत्तं - कूटग्राहित्व-कूड-कपट से अन्य प्राणियों को अपने वश में करने की कला को, कूडग्गाहे - कूटग्राह-कपट से जीवों को वश में करने वाला, मच्छताएमत्स्य के रूप में, मच्छबंधिएहिं - मत्स्यवधिकों-मछली मारने वालों के द्वारा, वहिए - हनन किया हुआ। ____ भावार्थ - तदनन्तर शकटकुमार बालक, सुदर्शना के रूप, यौवन और लावण्य में मूछित गृद्ध, ग्रथित और अध्युपपन्न हुआ सुदर्शना बहिन के साथ उदार-प्रधान मनुष्य संबंधी विषयभोगों का उपभोग करता हुआ विचरण करेगा। तदनन्तर वह शकट बालक किसी अन्य समय स्वयं ही कूटग्राहित्व-कपट से अन्य प्राणियों को अपने वश में करने की कला को संप्राप्त कर विहरण करेगा, कूटग्राह बना हुआ वह शकट महाअधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानंद होगा। इन कर्मों को करने वाला, इन में प्रधानता लिये हुए तथा इनके विज्ञान वाला एवं इन्हीं पाप कर्मों को अपना सर्वोत्तम आचरण बनाए हुए अधर्म प्रधान कर्मों से वह बहुत से पाप कर्मों को उपार्जित कर काल के समय काल करके रत्नप्रभा नामक प्रथम पृथ्वी में नैरयिक रूप से उत्पन्न होगा। उसका संसार परिभ्रमण पूर्वानुसार ही समझ लेना चाहिये यावत् पृथ्वीकाय में लाखों बार उत्पन्न होगा। वहाँ से निकल कर वह सीधा वाराणसी नगरी में मत्स्य के रूप में जन्म लेगा। वहाँ पर मत्स्य-वधिकों के द्वारा वध को प्राप्त होकर उसी वाणारसी नगरी में एक श्रेष्ठिकुल में पुत्र रूप से उत्पन्न होगा। वह वहाँ सम्यक्त्व को तथा अनगार धर्म को प्राप्त करके सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में देव होगा, वहाँ से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा, वहाँ दीक्षा अंगीकार कर प्रभु आज्ञानुसार संयम का पालन कर सिद्धि प्राप्त करेगा अर्थात् कृत कृत्य हो जायेगा, केवलज्ञान प्राप्त करेगा, कर्मों से रहित होगा, कर्मजन्य संताप से-विमुक्त होगा और सब दुःखों का अंत करेगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy