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________________ विपाक सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध विलवमाणे विजयस्स चोरसेणावइस्स महया इटीसक्कारसमुदएणं णीहरणं करेइ करेत्ता बहणं लोइयाई करेइ करेत्ता केणइ कालेणं अप्पसोए जाए यावि होत्था। तए णं ते पंच चोरसयाई अण्णया कयाइ अभग्गसेणं कुमारं सालाडवीए चोरपल्लीए महया महया चोरसेणावइत्ताए अभिसिंचंति। तए णं से अभग्गसेणे कुमारे चोरसेणावई जाए अहम्मिए जाव कप्पायं गिण्हइ ॥७५॥ . ____कठिन शब्दार्थ - अट्टओ - आठ प्रकार का, दाओ - प्रीतिदान-दहेज, काल धम्मुणाकालधर्म से, संजुत्ते - संयुक्त, कंदमाणे - आक्रन्दन करता हुआ, विलवमाणे - रोता हुआ, . . णीहरणं - निस्सरण, लोइयाई - लौकिक, मयकिच्चाई - मृतक संबंधी कृत्यों को, अप्पसोएअल्पशोक, कापायं - राजदेय कर को। - भावार्थ - तदनन्तर अभग्नसेन कुमार बाल भाव को त्याग कर युवावस्था को प्राप्त हुआ: तथा उसका आठ लड़कियों के साथ पाणिग्रहण (विवाह) किया गया। उसे आठ प्रकार का प्रीतिदान-दहेज प्राप्त हुआ और वह महलों में रह कर आनंद पूर्वक उसका उपभोग करने लगा। तत्पश्चात् किसी अन्य समय वह विजय चोर सेनापति कालधर्म (मृत्यु) को प्राप्त हुआ। तब अभग्नसेन कुमार पांच सौ चोरों के साथ रुदन करता हुआ, आक्रंदन करता हुआ तथा विलाप करता हुआ विजय चोर सेनापति का अत्यधिक ऋद्धि एवं सत्कार के साथ निस्सरण करता है अर्थात् अभग्नसेन बड़े समारोह के साथ अपने पिता के शव को श्मशान भूमि में पहुंचाता है तदनन्तर अनेक लौकिक मृतक संबंधी कृत्यों को अर्थात् दाहसंस्कार से लेकर पिता के निमित्त करणीय दान भोजन आदि कर्म करता है। तत्पश्चात् कितनेक समय के बाद वह अल्पशोक हुआ अर्थात् उसका शोक कुछ न्यूनता को प्राप्त हो गया। तदनन्तर उन पांच सौ चोरों ने किसी समय अभग्नसेन कुमार का शालाटवी नामक चोरपल्ली में महान् ऋद्धि और सत्कार के साथ चोर सेनापतित्व से उसका अभिषेक किया। तब से वह अभग्नसेन कुमार चोर सेनापति बन गया जो कि अधर्मी यावत् उस प्रांत के राजदेय कर को स्वयं ग्रहण करने लगा। विवेचन - कुमार अभग्नसेन जब पांचों धायमाताओं के यथाविधि संरक्षण में बढ़ता और फलता फूलता हुआ जब बाल भाव को त्याग कर युवावस्था को प्राप्त हुआ तो वहाँ के आठ प्रतिष्ठित घरों की कन्याओं के साथ उसका पाणिग्रहण हुआ और आठों के यहाँ से उसको आठआठ प्रकार का पर्याप्त दहेज मिला जिसको लेकर वह उन आठों कन्याओं के साथ अपने विशाल महल में रह कर सांसारिक विषयभोगों का उपभोग करने लगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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