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________________ विपाक सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध आयु को भोग कर कालमास में-मृत्यु का समय आ जाने पर काल करके तीसरी पृथ्वी-नरक में उत्कृष्ट सात सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिकों में नैरयिक रूप से उत्पन्न हुआ। . विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में गौतमस्वामी की जिज्ञासा का समाधान करते हुए श्रमण भगवान् । महावीर स्वामी ने फरमाया कि - हे गौतम! जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में पुरिमताल नामक नगर था। वहां उदित नाम के राजा राज्य करते थे। उस नगर में निर्णय नामक एक अण्डों का व्यापारी रहता था जो धनी एवं प्रतिष्ठित था किंतु अधर्मी और असंतोषी था। जीव हिंसा करना उसके जीवन का प्रधान लक्ष्य बना हुआ था। निर्णय के अनेकों नौकर थे जो काकी, मयूरी, कपोती और मुर्गी आदि पक्षियों के अण्डे पिटारियों में भर कर उन्हें सुपुर्द करते थे तथा अनेक नौकर ऐसे थे जो राजमार्गों में स्थित दुकानों में बैठ कर अंडों का क्रय विक्रय करते थे। इस प्रकार निर्णय ने अण्डों का व्यवसाय काफी फैला रखा था। निर्णय के अण्डों को व्यापार ही नहीं था किंतु वह स्वयं भी मांसाहारी था। अण्डों के आहार के साथ मदिरा पान भी करता था। इस प्रकार हिंसक व्यापार एवं मद्य मांस का सेवन करने से उसने अपने जीवन में भारी पाप कर्मों का संचय किया फलस्वरूप वह मर कर तीसरी नरक में उत्पन्न हुआ। - स्कंदश्री को उत्पन्न दोहद . से तओ अणंतरं उव्वहिता इहेव सालाडवीए चोरपल्लीए विजयस्स चोरमेणावइस्स खंदसिरीए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववण्णे। तए णं तीसे बंदसिरीए भारियाए अण्णया कयाइ तिण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं इमे एयासवे दोहले पाउन्भूए-धण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ जाओ णं बहूहिं मित्त-णाइणियग-सयण-संबंधि-परियणमहिलाहिं अण्णाहि य चोरमहिलाहिं सद्धिं संपरिवुडा ण्हाया कयबलिकम्मा जाव पायच्छित्ता सव्वालंकारविभूसिया विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं च महुं च मेरगं च जाइं चं सीधुं च पसण्णं च आसाएमाणी विसाएमाणी परिभाएमाणी परिभुंजेमाणी विहरंति॥७१॥ भावार्थ - वह निर्णय नामक अण्डों का व्यापारी नरक से निकल कर इसी शालाटवी नामक चोरपल्ली में विजय नामक चोर सेनापति की स्कंदश्री भार्या के उदर में पुत्र रूप से उत्पन्न Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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