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८२
नन्दी सूत्र
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मनोवर्गणा के अनंत प्रदेशी अनन्त स्कन्ध ही जानते हैं, पर जघन्य मनःपर्याय ज्ञान से जितने जाने जाते हैं, उनसे अनन्तगुण जानते हैं।
विशेष - जो मध्यम ऋजुमति मनःपर्याय ज्ञानी हैं, वे जघन्य ऋजुमति की अपेक्षा १. कोई अनन्तवें भाग अधिक २. कोई असंख्येय भाग अधिक ३. कोई संख्येयभाग अधिक ४. कोई .संख्येय गुण अधिक ५. कोई असंख्येय गुण अधिक और ६. कोई अनन्तगुण अधिक और उत्कृष्ट ऋजुमति की अपेक्षा छह स्थान हीन मनोवर्गणा के स्कन्ध द्रव्य जानते हैं।
तथा जो विपुलमति मनःपर्यवज्ञानी हैं, वे ऋजुमति जितने स्कन्ध देखते हैं, उनकी अपेक्षा परिणाम में अधिकतर स्कन्ध देखते हैं, विपुलतर स्कन्ध देखते हैं एवं स्पष्टता की अपेक्षा अधिक विशुद्धतर देखते हैं, वितिमिरतर-भ्रान्ति रहित देखते हैं।
शंका - जैसे अवधिज्ञानी, अवधिज्ञान से जानते हैं और अवधिदर्शन से देखते हैं ? उसी प्रकार मन:पर्यवज्ञानी क्या मन:पर्याय ज्ञान से जानते हैं और मन:पर्याय दर्शन से देखते हैं? . .
समाधान - नहीं, क्योंकि मन:पर्याय ज्ञान ही होता है, दर्शन नहीं होता। शंका - क्यों नहीं होता?
समाधान - छद्मस्थ जीवों का उपयोग तथा-स्वभाव से मन की पर्यायों की विशेषताओं को जानने की ओर ही लगता है, मन की पर्यायों के अस्तित्व मात्र को जानने की ओर नहीं लगता। अतएव मनःपर्यायज्ञान ही होता है, दर्शन नहीं होता।
शंका - तब 'मनःपर्यवज्ञानी देखते हैं' - इसका क्या अर्थ है ?
समाधान - १. 'मनःपर्यवज्ञानी, मन:पर्यायज्ञान से मन की पर्यायों को साक्षात् देख कर मनोनिमित्तक अचक्षुदर्शन के अनुमान द्वारा मनोभावों को देखते हैं' - यह अर्थ है। २. अथवा मन की पर्यायों को साक्षात् देखकर मनोनिमित्तक मतिज्ञान के अनुमान द्वारा मनोभावों को जानते हैं, उसे यहाँ 'देखना' कहा है। अथवा ३. मन की कम पर्यायों को देखना-'देखना' है तथा अधिक देखना 'जानना' है। यह अर्थ संभव है। . .
२. खित्तओ णं उज्जुमई य जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजयभागं, उक्कोसेणं अहे जाव इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उवरिमहेट्ठिल्ले खुड्डगपयरे, उड्डे जाव जोइसस्स उवरिमतले, तिरियं जाव अंतोमणुस्सखित्ते अड्डाइजेसु दीवसमुद्देसु पण्णरस्ससु कम्मभूमिसु तीसाए अकम्मभूमिसु छप्पण्णाए अंतरदीवगेसु सण्णिपंचेंदियाणं पजत्तयाणं मणोगए भावे जाणइ पासइ, तं चेव विउलमई अड्डाइजेहिमंगुलेहिं अब्भहियतरं विउलतरं विसुद्धतरागं वितिमिरतरागं खेत्तं जाणइ पासइ।
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