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________________ ८० - नन्दा सूत्र ******************************* ***************** * * * * * * * * * * * * भावनाओं से ऋद्धियाँ उत्पन्न होती हैं। जिन्हें ये ऋद्धियाँ प्राप्त हुई हैं, वे 'ऋद्धि प्राप्त' हैं तथा जिन्हें प्राप्त नहीं हैं, वे 'ऋद्धि अप्राप्त' कहलाते हैं। ___यहाँ मन:पर्यायज्ञान के साथ अविरोधी संभव अवधिज्ञान-लब्धि, पूर्वधर-लब्धि, गणधर-लब्धि, औषधि-लब्धि, वचन-लब्धि, चारण-लब्धि आदि लब्धियाँ ही ग्रहण करना चाहिए। मनपर्यायज्ञान, विशिष्ट विशुद्धि के कारण उत्पन्न होता है। वह विशिष्ट विशुद्धि, ऋद्धिप्राप्त में संभव है, ऋद्धि अप्राप्त में नहीं। क्योंकि ऋद्धि, विशुद्धि से ही प्राप्त होती है, बिना विशुद्धि के प्राप्त नहीं होती। विशेष - मनःपर्यायज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात् वह श्रमण छठे गुणस्थान में भी लब्धि से विद्यमान रह सकता है तथा श्रमण वहाँ उपयोग भी लगा सकता है। (प्रज्ञा० १७)। इति मनः पर्याय ज्ञान का पहला स्वामी द्वार समाप्त। मनःपर्यायज्ञान के भेद अब सूत्रकार मनःपर्यायज्ञान के कितने भेद होते हैं ? यह बताने वाला दूसरा भेद द्वार कहते हैंतं च दुविहं उपज्जइ तंजहा - १. उज्जुमई य २. विउलमई य। अर्थ - वह मन:पर्यायज्ञान दो प्रकार से उत्पन्न होता है, यथा - ऋजुमति और विपुलमति। विवेचन - द्रव्य मन के जितने स्कन्ध, उसकी जितनी पर्यायें विपुलमति जानता है, उनकी अपेक्षा जो द्रव्य मन के स्कन्ध और उसकी पर्यायें अल्प जाने, उसे 'ऋजुमति' मन:पर्यायज्ञान कहते हैं और २. द्रव्य-मन के जितने स्कन्ध और उसकी जितनी पर्यायें ऋजुमति जानता है, उनकी अपेक्षा जो द्रव्य-मन की विपुल स्कन्ध और पर्यायें जानता है, उसे 'विपुलमति' मन:पर्यायज्ञान कहते हैं। दृष्टांत - जैसे किसी संज्ञी जीव ने किसी घट के विषय में विपल चिन्तन किया. उस चिन्तन के अनुरूप उसके द्रव्य मन की अनेक पर्यायें बनी। उन पर्यायों में ऋजुमति, 'इसने घट का चिन्तन किया' - मात्र इतना जानने में सहायभूत जो अल्प पर्यायें हैं, उन्हें ही जानेगा और उन पर्यायों को साक्षात् देखकर फिर अनुमान से यह जानेगा कि - 'इस प्राणी ने घट का चिन्तन किया। __ परन्तु विपुलमति उन पर्यायों में-'इसने जिस घट का चिंतन किया वह घट द्रव्य से सोने का बना हुआ है, क्षेत्र से पाटलीपुत्र नामक नगर में बना हुआ है, काल से बसन्त ऋतु में बना है, भाव से सिंहनी के दूध से युक्त है और फल से ढका है, गुण से राजपुत्र को समर्पित करने योग्य और नाम से राजघट है इत्यादि बातें जानने में सहायभूत जितनी विपुल पर्यायें हैं, उन सबको जानेगा और अनुमान से यह जानेगा कि 'उसने घट का चिंतन किया, जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, गुण और नाम से या वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, शब्द, संस्थान आदि से इस प्रकार का है।' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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