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________________ [7] वाले शास्त्र भी मिथ्यादृष्टि के हाथों में पड़ कर मिथ्या बुद्धि से परिगृहीत होने के कारण मिथ्याश्रुत बन जाते हैं। इसके विपरीत मिथ्याश्रुत कहलाने वाले शास्त्र सम्यग्दृष्टि के हाथों में पड़ कर सम्यक्त्व से परिगृहीत होने के कारण सम्यक्श्रुत बन जाते हैं। इसी नंदी सूत्र में श्रुत के अक्षरश्रुत और अनक्षरश्रुत, संजीश्रुत और असंज्ञीश्रुत आदि चौदह भेद भी किये हैं। उनमें सम्यक्श्रुत वह है जो वीतराग प्ररूपित है। सर्वज्ञ-सर्वदर्शी तीर्थंकर भगवान् ने अपने आप देखा एवं समूचे लोक-अलोक को हस्तामलकवत् देखा। उन्होंने बंध, बंध-हेतु तथा मोक्ष, मोक्ष हेतु का स्वरूप प्रकट किया। भगवान् के प्रकीर्ण उपदेश को अर्थागम और उसके आधार पर की गई सूत्र रचना को सूत्रागम कहा गया। __ जैसा कि स्थानांग सूत्र में धर्म के दो भेद-श्रुतधर्म और चारित्र धर्म बतलाये गए उसमें चारित्र धर्म के पालन से पूर्व श्रुतधर्म का ज्ञान होना आवश्यक है। तभी चारित्र का सम्यक् रीति से पालन संभव है। भगवती सूत्र शतक ७ उद्देशक २ में उसी के प्रत्याख्यान को सुप्रत्याख्यान माना है जो श्रुतज्ञान से जीवादि का सही स्वरूप समझ कर प्रत्याख्यान करता है। इसके विपरीत बिना जीवादि का स्वरूप जान कर किये गये प्रत्याख्यान को सुप्रत्याख्यान न कह कर दुष्प्रत्याख्यान कहा गया है। इसके लिए पाठ इस प्रकार का है। प्रश्न - से णूणं भंते! सव्वपाणेहिं, सव्वभूएहिं, सव्वजीवेटिं, सव्वसत्तेहिं पच्चक्खायमिति वयमाणस्स सुपच्चक्खायं भवइ, दुपच्चक्खायं भवइ? उत्तर - गोयमा! सव्वपाणेहिं, जाव सव्वसत्तेहिं पच्चक्खायमिति वयमाणस्स सिय सुपच्चक्खायं भवइ, सिय दुपच्चक्खायं भवइ। प्रश्न - से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं जाव सिय दुपच्चक्खायं भवइ? उत्तर - गोयमा! जस्स णं सव्वपाणेहिं, जाव सव्वसत्तेहिं पच्चक्खायमिति वयमाणस्स णो एवं अभिसमण्णागयं भवइ-इमे जीवा, इमे अजीवा, इमे तसा, इमे थावरा, तस्स णं सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं पच्चक्खायमिति वयमाणस्स णो सुपच्चक्खायं भवइ, दुपच्चक्खायं भवइ। एवं खलु से दुपच्चक्खाई सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं पच्चक्खायमिति वयमाणे णो सच्चं भासं भासइ, मोसं भासं भासइ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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