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________________ वर्द्धमान अवधिज्ञान ५७ + -+ + +++++++ ** ************************************ ******** जैसे उक्त ज्योति स्थान से कुछ दूर खड़ा पुरुष, ज्योति से दूरी के कारण जहाँ खड़ा है, वहां से कुछ क्षेत्र को छोड़कर उस ज्योति से प्रकाशित क्षेत्र को देखता है । विशेष - जैसे अनानुगामिक अवधिज्ञान में सम्बद्ध, असम्बद्ध ये दो भेद बनते हैं, वैसे ही आनुगामिक अवधिज्ञान में भी बनते हैं। - जो अवधिज्ञान, आनुगामिक मध्यगत और सम्बद्ध होता है, उसे 'आभ्यन्तर अवधि' कहते हैं तथा शेष अवधिज्ञानों को 'बाह्य अवधि' कहते हैं। जैसे कोई अवधिज्ञान आनुगामिक होता है तथा कोई अनानुगामिक होता है, वैसे ही कोई अवधिज्ञान आनुगामिक+अनानुगामिक-मिश्र भी होता है। ____ जिस अवधिज्ञान का स्वभाव ऐसा हो कि वह अपने स्वामी को जिस क्षेत्र में उत्पन्न हुआ है, उससे अन्य क्षेत्र में जाते हुए. अपने स्वामी के साथ देशतः जाये और देशतः न जाये, उसे 'आनुगामिक+अनानुगामिक-मिश्र अवधिज्ञान' कहते हैं। दृष्टांत - जैसे किसी को १०० योजन क्षेत्र जाना जा सके-ऐसा मिश्र अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ, तो वह जिस क्षेत्र में उत्पन हुआ है, उस क्षेत्र में रहते हुए तो उसका स्वामी पूरे सौ योजन क्षेत्र को जान सकेगा, परन्तु वहाँ से अन्य क्षेत्र में चले जाने पर पूरे सौ योजन क्षेत्र को नहीं जान सकेगा। जैसे ५० योजन क्षेत्र जानेगा, ५० योजन क्षेत्र नहीं जानेगा। यह अनानुगामिक अवधिज्ञान है। अब सूत्रकार अवधिज्ञान के तीसरे भेद वर्द्धमान का स्वरूप बतलाते हैं - ... ३. वर्द्धमान अवधिज्ञान से किं तं वड्डमाणयं ओहिणाणं? वड्डमाणयं ओहिणाणं पसत्थेसु अज्झव सायट्ठाणेसु वट्टमाणस्स वड्डमाणचरित्तस्स विसुज्झमाणस्स विसुज्झमाणचरित्तस्स सव्वओ समंता ओहि वड्डइ। प्रश्न - वह वर्द्धमान अवधिज्ञान क्या है ? उत्तर - अध्यवसायों-विचारों के प्रशस्त होने पर तथा उनकी विशुद्धि होते रहने पर एवं पर्यायों की अपेक्षा चारित्र बढ़ता हुआ होने पर अवधिज्ञान की सभी ओर से वृद्धि होती है। .स्पष्टता-अवधिज्ञान रूपी द्रव्य को ही जानता है, अतएव जहाँ कहीं 'अवधिज्ञान अमुक क्षेत्र को जानता है या अमुक काल को जानता है' ऐसे वाक्य आवें, वहाँ ऐसा समझना चाहिए कि 'अवधिज्ञान अमुक क्षेत्र में रहे हुए रूपी द्रव्यों को देखता है तथा रूपी द्रव्यों की अमुक काल में होने वाली पर्यायों को जानता है। क्योंकि क्षेत्र . अर्थात् आकाशास्तिकाय और काल ये दोनों अरूपी द्रव्य हैं। इससे अवधिज्ञान इन्हें नहीं जान सकता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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