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________________ नन्दी सूत्र ५६ ******** * ******************************* *********************** असंखेग्जाणि वा संबद्धाणि वा असंबद्धाणि वा जोयणाइं जाणइ पासइ, अण्णत्थगए ण पासइ। से त्तं अणाणुगामियं ओहिणाणं॥११॥ प्रश्न - वह अनानुगामिक अवधिज्ञान क्या है? उत्तर - जैसे किसी नाम वाला कोई पुरुष है। उसने अंधकार में प्रकाश के लिए, किसी एक स्थान पर सैकड़ों ज्वाला युक्त एक महा अग्नि जलाई। अब यदि वह पुरुष, उस ज्योति स्थान के निकट या कुछ दूर तक चारों ओर चक्कर लगाता है, तो वह उस ज्योति से प्रकाशित क्षेत्र में रहे हुए पदार्थों को देख सकता है, परन्तु उस क्षेत्र से बहुत दूर जाकर वह उस प्रकाशित क्षेत्र के पदार्थों को नहीं देख सकता और उस क्षेत्र से भी अन्य क्षेत्र के पदार्थों को नहीं देख सकता है, . क्योंकि वह ज्योति स्थिर है, वह पुरुष का अनुगमन नहीं करती। वैसे ही अनानुगामिक अवधिज्ञान जहाँ उत्पन्न हुआ है, वहाँ रहकर या उसके कुछ दूर जाकर ही उसका स्वामी उस अवधिज्ञान से जितना क्षेत्र प्रकाशित है, उस प्रकाशित क्षेत्र के पदार्थों को ही देख सकता है, परन्तु वह अन्यत्र जाकर उस क्षेत्र के पदार्थों नहीं देख सकता तथा अन्य क्षेत्र के पदार्थों को भी नहीं देख सकता, क्योंकि अनानुगामिक अवधिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम क्षेत्र सापेक्ष है। अत: वह उस क्षेत्र पर ही बना रहता है, अन्यत्र साथ-साथ अनुगमन नहीं करता। . ('क्षेत्र सापेक्ष' है यह वचन गौण समझना चाहिए। मुख्य में वह मन्द विशुद्धि जन्य है, अतः साथ में अनुगमन नहीं करता।) - विवेचन - 'अन्अनुगमन' का अर्थ है-साथ न चलना। अतएव जिस अवधिज्ञान का ऐसा स्वभाव हो कि वह अपने स्वामी को जिस क्षेत्र में उत्पन्न है, उससे अन्य क्षेत्र में जाते हुए अपनेअपने स्वामी के साथ न जाये, उसे 'अनानुगामिक अवधिज्ञान' कहते हैं। विषय - जैसे-अन्तगत और मध्यगत आनुगामिक अवधिज्ञान से अवधिज्ञानी संख्येय या असंख्येय योजन क्षेत्र में रहे हुए रूपी पदार्थों को जान सकते हैं, वैसे ही अनानुगामिक अवधिज्ञान से भी अवधिज्ञानी अपने क्षेत्र में ही रह कर उस अवधिज्ञान से प्रकाशित संख्येय या असंख्येय योजन क्षेत्र में रहे हुए रूपी पदार्थों को देख सकते हैं। प्रकार - वह संख्येय या असंख्येय योजन क्षेत्र दो प्रकार से जाना जाता है-१. कोई अवधिज्ञानी क्षयोपशम के अनुसार जहाँ खड़े हैं, वहाँ से संबद्ध निरन्तर-(बीच में कहीं भी रुकावट रहित) संख्येय या असंख्येय योजन क्षेत्र जानते हैं तथा कोई अवधिज्ञानी विचित्र क्षयोपशम के अनुसार जहाँ खड़े हैं, वहां से संख्येय या असंख्येय योजन क्षेत्र तो जानते हैं, परन्तु असंबद्ध जानते हैं-मध्य में एक या अनेक क्षेत्र में कुछ योजन नहीं जानते हैं, फिर संख्येय या असंख्येय योजन जानते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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