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________________ ५४ नन्दी सूत्र ********* * * * * *********************** अवधिज्ञान से, दक्षिण पार्श्व या वाम पार्श्व की एक ही दिशा के रूपी पदार्थ जाने जाते हैं, अन्य दिशा के नहीं। विवेचन - जिस अवधिज्ञान से अवधिज्ञानी, अपने दक्षिण पार्श्व की-दाहिनी बगल की या वाम पार्श्व की-बायीं बगल की दिशा में रहे हुए रूपी द्रव्य को ही जान सके, अन्य दिशा में रहे हुए रूपी पदार्थ नहीं जान सके, उसे 'पार्वतः अन्तगत अवधिज्ञान' कहते हैं। विशेष - जैसे-अन्तगत अवधिज्ञान के पुरतः अन्तगत आदि भेद हैं, वैसे ही 'ऊर्ध्व अन्तगत' तथा 'अधो अन्तगत' ये भेद भी हैं। उन्हें उपलक्षण से समझ लेना चाहिये। उनके अर्थ आदि इस . प्रकार है____ जिस अवधिज्ञान से अवधिज्ञान का स्वामी, अपने मस्तक के ऊपर वाली एक ही दिशा में रहे हुए जो पुद्गल द्रव्य हैं, उन्हें ही जान सके, अन्य दिशा में रहे हुए रूपी पुद्गल नहीं जान सके, उसे 'ऊर्ध्व अन्तगत' अवधिज्ञान कहते हैं। जैसे कोई अन्धकार में जाता हुआ पुरुष, बैटरी के मुंह को ऊपरी दिशा की ओर जलाकर रखे, तो उसे ऊपर की दिशा के पदार्थ दिखाई देंगे, अन्य दिशा के नहीं। वैसे ही ऊर्ध्व अन्तगत अवधिज्ञान के ऊपर की दिशा के ही रूपी पुद्गल जाने जा सकते हैं, अन्य दिशा के नहीं। इसी प्रकार अधो दिशा के विषय में भी समझना चाहिए। इनके अतिरिक्त दो दिशा, तीन दिशा, चार दिशा और पाँच दिशा के ज्ञान के संयोग से बनने वाले अन्तगत अवधिज्ञान के अनेक भेद हैं। यह अन्तगत अवधिज्ञान हैं। , से किं तं मज्झगयं? मज्झगयं से जहा णामए केइ पुरिसे उक्कं वा चडुलियं वा अलायं वा मणिं वा पईवं वा जोइं वा मत्थए काउं समुव्वहमाणे समुव्वहमाणे गच्छिज्जा से त्तं मझगयं। प्रश्न - वह मध्यगत अवधिज्ञान क्या है? उत्तर - जैसे किसी नामवाला कोई पुरुष है। वह अन्धकार में कहीं जा रहा है, उस समय यदि वह प्रकाश के लिए उल्का, चटुलिका, अलात, मणि, प्रदीप या अग्नि को मस्तक पर रखकर वहन करता हुआ चले, तो उससे उसे अपनी सभी दिशाओं के रूपी पदार्थ दिखाई देंगे, किसी एक ही दिशा के नहीं। इसी प्रकार मध्यगत अवधिज्ञान से सभी दिशाओं के रूपी पदार्थ जाने जा सकते हैं। विवेचन - जिस अवधिज्ञान से अवधिज्ञानी छहों दिशाओं के रूपी पुद्गल द्रव्य जाने, उसे 'मध्यगत अवधिज्ञान' कहते हैं। -- संज्ञा हेतु - इस अवधिज्ञान का स्वामी अपने अवधिज्ञान से सभी दिशाओं में (जितना क्षेत्र प्रकाशित है, उस क्षेत्र के) किसी मध्य के स्थान में 'गत' रहता है। अतएव इस अवधिज्ञान को 'मध्यगत अवधिज्ञान' कहते हैं। यह मध्यगत अवधिज्ञान है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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