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________________ ५० नन्दी सूत्र ** * **************************************** ***** o अवधिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम, विशिष्ट प्रकार के चारित्रगुण को धारण करने पर उसके कारण से ही होता है, ऐसी एकांत बात नहीं है। चारित्र गुण धारण किये बिना भी तथाविध शुभ अध्यवसाय के आने पर, उसी कारण से भी अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम हो सकता है और चारित्र गुण स्वीकार करने पर तथाविध प्रशस्त अध्यवसाय के आने पर, उसके कारण से भी अवधिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम हो सकता है। विशिष्ट गुण प्रतिपत्ति के पश्चात् भी अवधिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता ही है, ऐसा एकान्त नहीं है। असंख्यगुण अनन्त सिद्ध ऐसे हैं, जिन्होंने संसार अवस्था में सातवें आदि गुणस्थानों पर चढ़ते हुए भी, अवधिज्ञान को पाये बिना ही सीधे केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त किया है। ___ दृष्टांत - जैसे सूर्य पर आये हुए बादल, तेज वायु के चलने पर ही दूर होते हों, ऐसी एकान्त बात नहीं है। कभी विस्त्रसा परिणाम से-अन्य प्रयोग के बिना ही. सर्य पर से बादल दर हो जाते हैं और कभी मन्द वायु के चलने से भी दूर होते हैं और कभी तेज वायु के चलने से भी दूर होते हैं। इसी प्रकार अवधिज्ञान रूपी प्रकाशवाली इस आत्मा पर अवधिज्ञान रूपी प्रकाश को ढंकने वाले, अवधिज्ञानावरणीय रूपी बादल, मिथ्यात्व आदि कारण से मंडरा गये हैं, वे चारित्रगुण रूपी वायु के बिना तथाविध शुभ अध्यवसाय से भी से दूर हो जाते हैं और चारित्र गुण प्रतिपन्नता रूपी वायु के बहने से भी तथाविध प्रशस्त अध्यवसाय से दूर होते हैं। ___ जैसे अवधिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम, गुण प्रतिपन्नता और गुण प्रतिपन्न के बिना-दोनों प्रकार से होता है और उससे अवधिज्ञान उत्पन्न होता है, वैसे ही मतिज्ञानावरणीय कर्म का और श्रुतज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम भी गुण प्रतिपन्नता से और गुण प्रतिपन्नता के बिना भी-दोनों प्रकार से होता है तथा मतिज्ञान और श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है। यहाँ यह समझ लेना भी श्रेयस्कर होगा कि-उत्कृष्ट या उत्कृष्ट के निकट के अवधिज्ञान, श्रुतज्ञान और मतिज्ञान, जिन से उत्पन्न होते हैं-ऐसे अवधिज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय और मतिज्ञानावरणीय कर्म का तीव्रतर क्षयोपशम तो सर्व चारित्र गुण पालने वाले अनगार को ही होते हैं, चारित्र गुण रहित अविरत सम्यग्दृष्टि को या देश चारित्र गुण सम्पन्न श्रावक को उत्पन्न नहीं होते। इस प्रकार अवधिज्ञान का पहला 'स्वामी द्वार' समाप्त हुआ। अवधिज्ञान के भेद २. भेद-द्वार - अब सूत्रकार 'अवधिज्ञान के कितने भेद हैं ?' या भेद बतलाने वाला अवधिज्ञान का दूसरा 'भेद-द्वार' आरम्भ करते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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