SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अवधिज्ञान का स्वामी ४९ ***** आये हुए हैं-उदय आवलिका में प्रविष्ट हो चुके हैं, उनके क्षय से तथा जो उदय में नहीं आये हैंउदय आवलिका में प्रविष्ट नहीं हुए हैं, उनके उपशम से-विपाक उदय की रुकावट से, क्षायोपशमिक अवधिज्ञान उत्पन्न होता है। विवेचन - उदयावलिका-एक मुहूर्त (४८ मिनट) के १,६७,७७,२१६ वें भाग को 'आवलिका' कहते हैं तथा वर्तमान उदय समय से आरम्भ करके आगामी एक आवलिकाकाल को 'उदयावलिका' कहते हैं। विशेष - अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम के समय अवधिज्ञानावरणीय कर्म के सभी दलिकों का-प्रदेशों का सर्वथा क्षयोपशम नहीं होता, पर कुछ दलिकों का क्षयोपशम होता है और कुछ दलिकों का मन्द विपाकोदय होता है। जैसे - अवधिज्ञान, अपने आवरणीय कर्म के क्षयोपशम से होता है, वैसे ही मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और मनःपर्याय ज्ञान भी अपने-अपने आवरणीय कर्मों के क्षयोपशम से होते हैं, यह समझ लेना चाहिए। ___ अब सूत्रकार स्वामी द्वार समाप्ति के पूर्व, अवधिज्ञानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम कब होता है, यह बताते हैं - अहवा गुणपडिवण्णस्स अणगारस्स ओहिणाणं समुपज्जइ, तं समासओ छव्विहं पण्णत्तं, तं जहा-आणुगामियं, अणाणुगामियं, वड्डमाणयं, हीयमाणयं, पडिवाइयं, अपडिवाइयं॥९॥ ..- अर्थ - अथवा कषायों की मन्दता आदि गुण सम्पन्न अनगार को अवधिज्ञान उत्पन्न होता है। वह अवधिज्ञान संक्षेप में छह प्रकार का कहा गया है। यथा - १. आनुगामिक, २. अनानुगामिक, ३. हीयमान. ४. वर्द्धमान. ५. प्रतिपाति और ६. अप्रतिपाति। विवेचन - १. गुण रहित अविरत सम्यग्दृष्टि को अवधिज्ञान उत्पन्न होता है अथवा २. गुणप्रतिपन्न देशविरत श्रावक को अवधिज्ञान उत्पन्न होता है अथवा ३. गुण-प्रतिपन्न सर्व-विरत. अनगार को अवधिज्ञान उत्पन्न होता है। . यहाँ ज्ञानगुण, दर्शन गुण और चारित्रगुण में से चारित्रगुण को 'गुण' कहा गया है। चारित्रगुण के दो प्रकार हैं-१. देश चारित्र गुण-श्रावक धर्म और २. सर्व चारित्र गुण-साधु धर्म। चौथे गुणस्थान वाला अविरत सम्यग्दृष्टि जीव, चारित्र गुण से रहित होता है। पांचवें गुणस्थान वाला देशविरत श्रावक, देश चारित्र गुण प्रतिपन्न होता है और छठे आदि गुणस्थान वाला सर्वविरत साधु, सर्व चारित्र गुण प्रतिपन्न होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy