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भेरीवादक का दृष्टांत
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लोगों ने जाकर श्रीकृष्ण से विज्ञप्ति की-"राजन्! जैसे वर्षाकाल की मेघाच्छन्न अमावस्या की रात्रि को तीव्र अंधकार व्याप्त हो जाता है, उसी प्रकार द्वारिका में फिर से रोग का भयंकर उपद्रव व्याप्त हो गया है।" यह सुनकर श्रीकृष्ण ने दूसरे दिन सभा में भेरी बजाने वाले को बुलाया
और उसे भेरी बजाने के लिए कहा। उसने भेरी बजाई, पर उसका शब्द सभा तक भी नहीं फैला। तब श्रीकृष्ण ने स्वयं भेरी को निरखा। वह महादरिद्री की कंथा की भांति सहस्रों अन्य चन्दनखण्डों से जुड़ी हुई दिखाई दी। यह देखकर श्रीकृष्ण को बहुत क्रोध आया। उन्होंने उस भेरीरक्षक से पूछा-"अरे दुष्ट! पापी! अधम! यह तूने क्या किया? उस भेरी-रक्षक ने मरण के भय से सब कुछ सच-सच बतला दिया। उसके भ्रष्टाचार की बात सुनकर श्रीकृष्ण ने उस भेरी-रक्षक को महान् अनर्थ करने वाला समझकर तत्काल शूली पर चढ़वा दिया तथा जन अनुकम्पा के लिए पुनः पौषधशाला में तेले का तप करके देव की आराधना की। देव के प्रत्यक्ष होने पर उसे स्मरण का हेत बतलाया। देव ने श्रीकृष्ण को दसरी रोगोपद्रव मिटाने वाली भेरी दी। श्रीकष्ण ने वह भेरी अत्यन्त विश्वस्त एवं योग्य भेरी-वादक को सौंपी। उस निर्लोभ भेरी-वादक ने धन-वैभव को ठोकर मारकर अत्यन्त निष्ठा के साथ उस भेरी की रक्षा की। उससे प्रसन्न होकर श्रीकृष्ण ने बहुत वर्षों के बाद उसे पीढ़ियों तक अखूट धन देकर विदा कर दिया। . इस दृष्टांत में देव के स्थान पर तीर्थंकर, कृष्ण के स्थान पर आचार्य, भेरी के स्थान पर जिनवाणी और भेरीवादक के स्थान पर शिष्य समझना चाहिये। '
जिस प्रकार देव ने कृष्ण को भेरी दी, उसी प्रकार तीर्थकर, जिनवाणी प्रकट करके उसे गणधरादि आचार्यों को देते हैं। जैसे-कृष्ण ने प्राप्त भेरी, भेरीवादक को दी, वैसे ही गणधरादि आचार्य, अपने शिष्यों को जिनवाणी देते हैं, जैसे भेरीवादक, भेरी को बजाने वाला है, वैसे ही शिष्य, अन्य को जिनवाणी सुनाता है। जैसे वह भेरी, सर्व रोग उपद्रव की शामक थी, वैसे ही जिनवाणी भी समस्त कर्म रोग को शमन करने वाली है।
भेरी का नाश करने वाले भेरी-वादक के समान कुछ शिष्य, आचार्य से जिनवाणी प्राप्त करके अपने असत्पक्ष की पुष्टि के लिए या स्वार्थ के लिए, मूलसूत्र में ही घटाव बढ़ाव और बदलाव करते हैं। कुछ उसके अर्थ में छिपाव, घुमाव और विपर्यय करते हैं अथवा कुछ शिष्य कहीं कोई सूत्र या अर्थ भूल जाने पर उसे अन्य गीतार्थ से पूछकर पूरा नहीं करते, पर अपनी मति-कल्पना से उसमें नया सूत्रार्थ जोड़ कर पूरा करते हैं अथवा कुछ शिप्य, जैन सूत्रार्थ में अजैन सूत्रार्थ का सम्मिश्रण कर देते हैं। ऐसे श्रुत के प्रति भक्ति से रहित, श्रुत के शत्रु, श्रुतदान के अयोग्य हैं। ऐसा करने वाले स्वयं सम्यक्त्व से भ्रष्ट होते हैं, दूसरों को सम्यक्त्व आदि से भ्रष्ट करते हैं, दुर्लभबोधि बनते हैं और अनन्त संसार बढाते हैं।
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