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भेरीवादक का दृष्टांत
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इस प्रशंसा वचन को सुनकर देवता को स्वीकार करना पड़ा कि-'शक्र इन्द्र ने जो कहा थावह यथार्थ है।'
उसके कुछ समय पश्चात् जब श्रीकृष्ण, श्री नेमिवन्दन करके लौट आये, तब उस देवता ने कृष्ण की युद्ध परीक्षा के निमित्त उनकी घुड़शाला से एक घोड़े का अपहरण किया। यह देखकर पैदल सेना के लोग तलवार, भाले आदि लेकर उसके पीछे पड़े। कई कुमार भी उस देवता के पीछे पड़े थे। सब ने उस देवता पर सैकड़ों प्रहार किये, पर वह देव अपनी दिव्यशक्ति से उन सभी को लीलामात्र से जीतता हुआ मन्द गति से आगे बढ़ रहा था। श्रीकृष्ण को इस घटना की जानकारी हुई, तो वे भी उसके पीछे गये। श्रीकृष्ण ने उसके पास पहुँच कर उससे पूछा-"आप! मेरे अश्वरत्न का अपहरण क्यों कर रहे हैं?" देव ने कहा-"मैं अपहरण करने की शक्ति रखता हूँ, अत: अपहरण कर रहा हूँ। यदि तुझ में कोई शक्ति हो, तो मुझे जीतकर इसे छुड़ा ले"। तब युद्ध-प्रियकृष्ण ने सहर्ष पूछा-"हे महापुरुष! आप किस युद्ध से लड़ना चाहेंगे"? यों कहकर कृष्ण ने उस देव को विविध प्रकार के यद्धों के नाम गिनाये। परन्त देव ने उन सभी यद्धों से लडने का निषेध कर दिया। तब कृष्ण ने पूछा-"आप ही कहिए, किस रीति से मैं युद्ध करूँ?" वह देव बोला"तू मुझ से पुतों से-नितम्ब से युद्ध कर।" तब श्रीकृष्ण ने अपने दोनों कानों को दोनों हाथों से बन्द करके "हा! हा!" करते हुए कहा-"यह आप क्या कह रहे हैं ? जाइए, जाइए, आप अश्वरत्न ले जाइए, मुझसे अधम रीति से युद्ध करना शक्य नहीं है।"
- देव को यह निश्चय हो गया कि-'शक्र इन्द्र की दूसरी बात भी सत्य है'। उसने अपना वास्तविक दिव्य रूप प्रकट करके श्रीकृष्ण से कहा-"कृष्ण! मैं तुम्हारे अश्व का अपहरण करने नहीं आया। मैंने तुम्हारे गुण की परीक्षा के लिये ऐसा किया है।" यह कहकर देव ने शक कृत प्रशंसा का वृत्तांत कह सुनाया।
- अपनी गुण प्रशंसा सुनकर श्रीकृष्ण लज्जित हुए। उन्होंने अपनी ग्रीवा, मस्तक और नयन झुका लिए। वह देव श्रीकृष्ण की यह अन्य विशेषता देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ। उसने कहा"कृष्ण! मनुष्यों को वैमानिक देवों का दर्शन कभी निष्फल नहीं जाता"-ऐसी लोक में अतएव तुम मुझ से कुछ यथेष्ट वर मांगो।
कृष्ण ने कहा-"देव! अभी द्वारिका नगरी में रोग का उपद्रव चल रहा है। अतः उसे इस प्रकार उपशांत कीजिए कि वह फिर से उत्पन्न न हो।" देव ने उन्हें गोशीर्ष चन्दन से बनी हुई, अशिव का उपशम करने वाली एक भेरी दी और कहा-"इसका नियम यह है कि इसे छह-छह मास के पश्चात् अपने आस्थान मण्डप में रखकर ही बजाई जाये। इसका बारह-बारह योजन तक सुनाई देने वाला, मेघ गर्जना के समान गंभीर शब्द होगा। इसका शब्द जो भी सुनेगा, उसकी पहले
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