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________________ मुद्गशैल का दृष्टांत ** ** ********-* -*-*--*--*-* * --* -* यह कह कर पुष्करावर्त ने पूरी तैयारी के साथ मूसलाधार तीव्र वर्षा आरम्भ की और निरन्तर-बिना एक भी दिन रुके, सात अहोरात्रि तक बरसता रहा। जब उस निरंतर सात दिन-रात .. की तीव्र वर्षा से सारी ही धरती जल मग्न हो गई, तब उसने सारे जगत् को एक महासमुद्र सा देख कर चिन्तन किया कि - 'वह बिचारा समूल ही नष्ट हो गया होगा!' यह सोच कर उसने । वर्षा से निवृत्ति ली। . जब धीरे-धीरे जल समूह वहाँ से बह गया और धरती फिर से बाहर आ निकली, तब उस पुष्करावर्त ने बड़े हर्ष के साथ नारद से कहा - 'नारदजी! अब बिचारा वह मुद्गशैल किस अवंस्था को पहुंच गया होगा? आइए, हम दोनों साथ ही चलकर देखें।' - नारदजी साथ हो लिए। दोनों साथ-साथ मुद्गशैल के पास पहुंचे। पहले तो उस मुद्गशैल पर धूलि चढ़ी हुई थी, इसलिये वह कुछ मन्द-मन्द चमक रहा था। पर अब वर्षा से उसके तन की सारी धूलि हट जाने के कारण वह तीव्रता से चमकने लग गया था। वह चमकाहट से मानो हास्य करता हुआ, आये हुए नारद और पुष्करावर्त से कहने लगा-"आइए ! आइए! आप दोनों का स्वागत है! स्वागत है! अहा! हम बड़े भाग्यशाली हैं कि आपने अचिन्त्य कृपा दृष्टि करके हमें अपने दर्शन दिये। हमें स्वप्न में भी जिसकी कल्पना नहीं थी, ऐसे आपके अचानक दर्शन पाकर हमारा मन मयूर नाच उठा है!" मुद्गशैल को उस अवस्था में देख कर और उसके इन व्यंग वचनों को सुन कर पुष्करावर्त को अपनी प्रतिज्ञा-भ्रष्टता से बहुत ही लज्जा उत्पन्न हुई। उसका गर्व से तना हुआ सिर, आँखें और कंधे सभी कुछ झुक गये। वह बेचारा कुछ भी नहीं बोल सका। उसे चुपचाप अपने स्थान लौट जाना पड़ा। किसी वद्ध आचार्य श्री के पास एक मदगशैल जैसा ही शिष्य दीक्षित हो गया। आचार्य श्री ने उसके कल्याण के लिए उसे यत्न से निरन्तर पढ़ाया, किन्तु उसने एक भी अक्षर ग्रहण नहीं किया, तब आचार्य श्री ने अयोग्य समझ कर उसकी उपेक्षा कर दी। ___अन्यदा एक युवक आचार्य, उन वृद्ध आचार्य श्री की सेवा में आये। उन्होंने उस शिष्य को आचार्य से. उपेक्षित देखकर आचार्य श्री से पूछा-"आप इसे क्यों नहीं पढ़ाते?" आचार्य श्री ने उत्तर दिया-'यह मुद्गशैल के समान ज्ञान के लिए अयोग्य है, ऐसा अनुभव होने के कारण मैंने इसे पढ़ाना छोड़ दिया।' यह सुनकर वे तरुण आचार्य, आवेग में आ गये। उन्होंने वृद्ध आचार्य श्री के प्रयत्न की ओर ध्यान नहीं दिया और उस मुद्गशैल समान शिष्य की भी परख नहीं की, उल्टा तरुणाई के मद में आकर जंभाई के साथ अपना पराक्रम बताते हुए बोले-"आचार्य श्रीजी! यह शिष्य मुझे दे दीजिए, मैं इसे पढ़ाऊँगा।' दूसरे लोगों से भी कहने लगे - 'अरे, यह कोई जड़ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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