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________________ नन्दी सूत्र . १४ *** *********** *2-1 1 -12*1-22 (१३) श्री श्याम हुए। ये भी हारित गोत्रीय थे। (इन्होंने पूर्वो से प्रज्ञापना सूत्र का उद्धार किया था) इसके शिष्य आर्य (१४) शांडिल्य हुए। ये कोशिक गोत्रीय थे। ये जीतधर-विशिष्ट सूत्रधर हुए। (किन्हीं के मतानुसार शाण्डिल्य के आर्य जीतधर नामक शिष्य हुए।) . ति-समुह-खाय-कित्तिं, दीव-समुद्देसु गहिय-पेयालं। वंदे अज्जसमुदं अक्खुभिय-समुद्द-गंभीरं॥ २९॥ शाण्डिल्य के बाद आर्य (१५) समुद्र हुए। समुद्रजी, तीनों समुद्रों में विख्यात कीर्तिवाले थे। (दक्षिण भारत के उत्तर में वैताढ्य पर्वत है और शेष तीन दिशाओं में लवण समुद्र है। वहाँ तक आपकी कीर्ति फैली हुई थी) दीप-समुद्रों के प्रमाण के जानने वाले थे-'द्वीपसागर प्रज्ञप्ति' के अतिशय ज्ञाता थे और समुद्र के समान अक्षुभित और गम्भीर थे। ऐसे 'यथानाम तथागुण' आर्य समुद्र को मैं वन्दना करता हूँ। भणगं करगं झरगं, पभावगं णाण-दसण-गुणाणं। वंदामि अज्जमगुं, सुय-सागर-पारगं धीरं॥३०॥ इनके बाद आर्य (१६) मंगु हुए। ये भणक थे-कालिकादि सूत्रों का अनवरत प्रतिपादन करने वाले थे। वे कारक थे-सूत्रोक्त प्रतिलेखन आदि समस्त क्रियाओं के करने और कराने वाले थे। ध्याता थे-आर्तध्यान और रौद्रध्यान छोड़कर सूत्रोक्त धर्मध्यान ध्याने वाले थे। इस प्रकार ज्ञानवान्, क्रियापात्र एवं ध्यानी होने के कारण ज्ञान, दर्शन और चारित्र गुण की प्रभावना करने वाले थे। ऐसे श्रुत-सागर के पारगामी 'धीर'-बुद्धि से विराजित, आर्य मंगु को मैं वन्दना करता हूँ। (वंदामि अज्जधम्म, तत्तो वंदे य भद्दगुत्तं च। तत्तो य अज्जवइरं, तव-नियम-गुणेहिं वइरसमं॥३१॥ आर्य धर्म और भद्रगुप्त को वन्दना करता हूँ, उसके पश्चात् आर्य वज्र को वन्दना करता हूँ, जो तप और नियम गुणों में वज्र के समान कठोर थे, शिथिल नहीं थे। वंदामि अज्जरक्खिय-खमणे, रक्खियचरित्त सव्वस्से। रयण-करंडग-भूओ, अणुओगो रक्खिओ जेहिं॥ ३२॥) इसके पश्चात् आर्य रक्षित क्षमण को वन्दना करता हूँ। इन्होंने चारित्र सर्वस्व की रक्षा की थी, या सबके चारित्र की रक्षा की थी, तथा रत्नकरंडकभूत अनुयोग की (अनुयोगद्वार सूत्र बनाकर) रक्षा की थी। णाणम्मि दंसणम्मि य, तवविणए णिच्च-मुज्जुत्तं। अज्जं नंदिलखमणं, सिरसा वंदे पसन्नमणं॥ ३३॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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