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________________ स्थविर आवलिका ************************ १३ **** * * * ** . . . . . . . भगवान् महावीर स्वामी की विद्यमानता में ही मोक्ष पधार गये थे। अतः भगवान् के पाट पर उनमें से कोई नहीं आये। जब भगवान् मोक्ष में पधारे, तब श्री इन्द्रभूतिजी को केवलज्ञान हो गया, अत: वे पाट पर नहीं बिराजे, क्योंकि श्रुत-परम्परा (सुना हुआ कहता हूँ) चलाना, छद्मस्थों का व्यवहार है, केवलियों का व्यवहार नहीं है। क्योंकि वे प्रत्यक्ष जानते हैं अतएव भगवान् के पाट पर सुधर्मा विराजे। सुधर्मा के पाट पर दूसरे आचार्य (२) जम्बू स्वामी हुए, ये काश्यप गोत्रीय थे। जम्बू के पाट पर तीसरे आचार्य (३) श्री प्रभवस्वामी हुए, ये कात्यायन गोत्रीय थे और जम्बू से बोध पाये थे। श्री प्रभव के पाट पर चौथे आचार्य (४) श्री शय्यंभव हुए, ये वत्स गोत्रीय थे। (इन्होंने अपने संसारी पुत्र 'मनक' नाम के शिष्य के आयुष्य को अल्प जान कर, उसके कल्याणार्थ, पूर्वो से दशवैकालिक सूत्र का उद्धार किया था) इन सबको मैं वन्दना करता हूँ। जसभहं तुंगियं वंदे, संभूयं चेव माढरं। भद्दबाहुं च पाइन्नं, थूलभदं च गोयमं॥ २६॥ शय्यंभव के पाट पर पांचवें आचार्य (५) यशोभद्र हुए। ये तुंगिक गोत्रीय थे। इनके दो महान् शिष्य हुए। एक माठर गोत्रीय (६) श्री संभूतिविजय थे और दूसरे प्राचीन गोत्रीय (७) श्री भद्रबाहुस्वामी थे। भद्रबाहु सातवें आचार्य हुए। ये अन्तिम चौदह पूर्वधर थे। उन्होंने पूर्वो से छेदसूत्रों का उद्धार किया था। नियुक्तियाँ तथा उपसर्गहर छंद आदि इनके बनाये हुए नहीं है, इसलिए अप्रमाण हैं, वे पश्चात्वर्ती दूसरे भद्रबाहु के बनाये हुए हैं। भद्रबाहु के पाट पर श्री संभूतिविजय के शिष्य (८) श्री स्थूलिभद्र सातवें आचार्य हुए। ये गौतम गोत्रीय थे। इनके समय से (९) उपरांत (१०) पूर्व के अर्थ का व्यवच्छेद हुआ। इन सभी को मैं वन्दना करता हूँ। .. एलावच्चसगोतं, वंदामि महागिरि सुहत्थिं च।। - ततो कोसियगोत्तं, बहुलस्स सरिव्वयं वंदे॥ २७॥ - श्री स्थूलिभद्रजी के दो महान् शिष्य हुए। एक आर्य (९) महागिरि, ये एलापत्य गोत्रीय थे। ये आठवें आचार्य हुए, ये आचार प्रधान थे। दूसरे आर्य (१०) सुहस्ति हुए, ये वशिष्ठ गोत्रीय थे, ये प्रचार प्रधान थे। आर्य महागिरी के दो महान् शिष्य हुए-एक (११) बहुल और दूसरे बलिस्सह। ये दोनों कोशिक गोत्रीय थे और जुड़वां भाई थे। (बलिस्सहजी प्रवचन में प्रधान हुए।) इन सबको मैं वन्दना करता हूँ। हारियगुत्तं साइंच, वंदिमो हारियं च सामज्ज। वंदे कोसियगोत्तं, संडिल्लं अजजीयधरं॥ २८॥ बलिस्सहजी के शिष्य (१२) 'स्वाति' हुए। ये हारित गोत्रीय थे। स्वाति के शिष्य आर्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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