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________________ संघ स्तुति पर्वत के कूट ५०० योजन ऊंचे हैं, वैसे ही तुम्हारा चित्त रूप कूट भी 'ऊँचा' है। क्योंकि अशुभ अध्यवसाय से ऊपर उठ चला है। जैसे मेरु की कूट उज्ज्वल-निर्मल है, वैसे ही तुम्हारा चित्त रूप कूट निर्मल है, क्योंकि कर्म-मल प्रतिक्षण हट रहा है। जैसे-मेरु के कूट ज्वलंत-जाज्वल्यमान हैं, वैसे ही तुम्हारा चित्त रूप कूट जाज्वल्यमान है, क्योंकि उत्तरोत्तर सूत्रार्थ का स्मरण करते हो। इति कूट उपमा। तुम में संतोष रूप 'नंदनवन' है। जिस प्रकार अशोक आम्रादि युक्त नंदन-वन, सुर-असुर विद्याधर आदि सभी को आनंद देता है, उसी प्रकार संतोष प्राप्त में तृप्ति सभी का आनंद देता है। जैसे वह नंदन वन, फल-फूल आदि से सभी को मनोहर लगता है, वैसे ही तुम्हारा सन्तोष रूप वन आमर्ष-स्पर्श, औषधि आदि रूप फल-फूल आदि से सभी को 'मनोहर' है। जैसे-नन्दन-वन सुगंध स्वभाव वाले गन्ध से परिपूर्ण है, वैसे ही तुम्हारा सन्तोष रूप वन, शील रूप सुगन्ध से परिपूर्ण है। इति वन उपमा। जीवदया-सुंदर कंद-रुद्दरिय-मुणिवर-मइंदइण्णस्स। हेउ-सय-धाउ-पगलंत, रयण-दित्तोसहिगुहस्स॥ १४॥ तुम 'जीवदया' रूप 'सुन्दर कन्दरावाले' हो। जैसे कंदरा-खोह में जीव शरण पाते हैं, वैसे ही जीव, जीवदया में शरण पाते हैं। तुम्हारी वे कन्दराएँ कर्म-शत्रुओं के प्रति दर्प भरे मुनिवर रूप मृगेन्द्रों-सिंहों से व्याप्त है। जैसे सिंह से वन्य पशु भयभीत रहते हैं और पराजित होते हैं, वैसे ही वादी-अनगार रूप सिंहों से, अन्यमती रूप वन्य-पशु भयभीत रहते हैं और चर्चा में पराजित होते हैं। इति कन्दरा उपमा। तुम व्याख्यानशाला रूप 'गुफा' वाले हो। जैसे-गुफाओं में कनकादि पुष्टिकर सैकड़ों धातुएँ होती हैं, वैसे ही व्याख्यानशाला में सैकड़ों हेतु-तर्क युक्ति रूप स्वर्ण आदि धातुएँ हैं, जो परमत का खण्डन करके स्व-जिनमत की पुष्टि करती हैं। जैसे गुफाओं में चंद्रकांतादि कई अमृत 'झरते हुए रत्न' होते हैं, वैसे ही व्याख्यानशाला में क्षयोपशम भावरूप अमृतरस से झरते हुए जिनवचन रूप रत्न होते हैं। जैसे गुफाओं में कई दीप्तमान औषधियाँ होती हैं, वैसे ही तुम में आमर्ष आदि रूप कई औषधियाँ हैं। इति गुफा उपमा। . संवर-वर-जल-पग-लिय, उज्झर-पविरायमाण-हारस्स। .. सावग-जण-पउर-रवंत-मोर-नच्चंत-कुहरस्स॥१५॥ तुम संवर झरने रूप हार से विराजित-सुशोभित हो। जैसे मेरु के झरनों में प्यास बुझाने वाला, मल धोने वाला और परिणाम में सुखकर उत्तम जल निरन्तर बहता है, वैसे ही तुम्हारे संवर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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