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नन्दी सूत्र
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तुम अक्षोभ्य हो। जैसे - समुद्र प्रलयंकर वात से भी क्षुब्ध नहीं होता-अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता, वैसे ही तुम भी उपसर्ग-परीषह रूप प्रलयंकर वात से भी क्षुब्ध नहीं होतेअपनी व्रत प्रतिमा आदि रूप मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं करते।
तुम विशाल हो। जैसे-समुद्र सभी दिशाओं में विस्तीर्ण फैला हुआ होता है, वैसे ही तुम भी पन्द्रह कर्म भूमियों में विस्तृत फैले हुए हो।
ऐसे हे संघ रूप 'समुद्र'! तेरा भद्र हो। भला हो, कल्याण हो। अब आचार्य श्री आठवीं, मेरु की उपमा से संघ की स्तुति करते हैं - सम्म-इंसण-वर-वइर-दढ-रूढ-गाढावगाढ-पेढस्स। धम्म-वर-रयण-मंडिय, चामीयर-मेहलागस्स॥१२॥
मेरु की उपमा वाले हे संघ! तुम सम्यग्दर्शन रूप वरवज्र की दृढ़-निष्प्रकंप, रूढ़-चिर प्ररूढ़, गाढ़-निबिड, अवगाढ़-गहरी पीठिका वाले हो। जैसे-मेरु पर्वत का समतल से नीचे भूमि में रहा हुआ, एक सहस्र योजन परिमाण डंडाइ वाला प्रथम काण्ड उसकी पीठिका है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन तुम्हारी पीठिका है, क्योंकि सम्यग्दर्शन ही मोक्ष का सर्वप्रथम वास्तविक अंग है। जैसे मेरु की पीठिका (देशतः) प्रधान वज्र रूप है, वैसे ही तुम्हारी सम्यग्दर्शन रूप पीठिका भी श्रेष्ठ वज्ररूप है, क्योंकि सम्यग्दर्शन सारभूत है। जैसे मेरु की पीठिका निष्प्रकंप है, क्योंकि उसमें छिद्रों का अभाव है। अतः उसमें जल प्रविष्ट न होने के कारण उसमें कंपन-हिलाव नहीं आता, वैसे ही तुम्हारी सम्यग्दर्शन पीठिका निष्प्रकंप है, क्योंकि उसमें शंकादि छिद्र नहीं हैं। अत: उसमें अन्यमत भावना रूप जल का प्रवेश न होने के कारण उसमें हिलाव नहीं आता। जैसे मेरु की पीठिका अनादिकाल की है, वैसे ही तुम्हारी सम्यग्दर्शन रूप पीठिका चिरकाल की तथा प्रवाह की अपेक्षा अनादिकाल की है, क्योंकि तुम चिर अनादिकाल से विशुद्ध्यमान परिणाम और प्रशस्त अध्यवसाय में वर्त रहे हो। जैसे मेरु की पीठिका गाढ़ है, वैसे ही तुम्हारी सम्यग्दर्शन रूप पीठिका गाढ़ है, क्योंकि तत्त्व विषयक रुचि तीव्र है। जैसे- मेरु की पीठिका सहस्र योजन गहरी है, वैसे ही तुम्हारी सम्यग्दर्शन पीठिका गहरी है, क्योंकि जीवादि पदार्थों का सम्यग्बोध है। इति पीठिका उपमा।
तुम अहिंसादि मूल-धर्म रूप स्वर्ण मेखला वाले हो, जो उत्तर-धर्म रूप श्रेष्ठ रत्नों से मण्डित है। इति मेखला उपमा।
निय-मूसिय-कणय, सिलाय-लुजल-जलंत चित्तकूडस्स। नंदन-वण-मणहर-सुरभि-सील-गंधु मायस्स॥ १३॥ . तुम में इन्द्रिय दमन आदि नियम रूप स्वर्णशिलाएं हैं, जिन पर चित्त रूप कूट हैं, जैसे मेरु
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