SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 259
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४२ - नन्दी सूत्र आदि का, चौथे अध्ययन में चार अन्तक्रिया आदि, पाँचवें अध्ययन में पाँच महाव्रत आदि का, छठे अध्ययन में गण धारण करने वाले के छह गुण आदि का, सातवें अध्ययन में गण अपक्रमण के सात कारण आदि का, आठवें अध्ययन में एकलविहार प्रतिमाधारी के आठ गुण आदि का, नौवें अध्ययन में संभोगी को विसंभोगी करने के नौ कारण आदि का कथन किया है तथा दसवें अध्ययन में दस की संख्या में या दस की संख्या वाले पदार्थों का निरूपण किया है, जैसे - लोक स्थिति दस प्रकार से है। स्थानांग के २१ उद्देशक हैं। दूसरे अध्ययन में ४, तीसरे अध्ययन में ४, चौथे अध्ययन में ४, पाँचवें अध्ययन में ३, शेष छह अध्ययनों के एक-एक के परिमाण से ६, सब उद्देशक २१ । उद्देशक के अनुसार २१ उद्देशनकाल और २१ समुद्देशनकाल हैं। बावत्तरि पयसहस्सा पयग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा, अणंता गमा, अणंता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा। अर्थ - ७२ सहस्र पद हैं। (वर्तमान में ७८३ सूत्र हैं।) संख्यात अक्षर हैं। (वर्तमान में ३७०० श्लोक प्रमाण अक्षर हैं।) अनन्त गम हैं, अनन्त पर्यव हैं। परित्त त्रस हैं। अनन्त स्थावर हैं। . सासयकडणिबद्धणिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविजंति, पण्णविजंति, परूविज्जंति, दंसिज्जति, णिदंसिजंति, उवदंसिज्जंति। अर्थ - शाश्वत और कृत पदार्थों के विषय में निबद्ध और निकाचित जिन प्रज्ञप्त भाव कहे जाते हैं, प्रज्ञप्त किये जाते हैं, प्ररूपित किये जाते हैं, दर्शित किये जाते हैं, निदर्शित किये जाते हैं, उपदर्शित किये जाते हैं। से एवं आया, एवं णाया, एवं विण्णाया, एवं चरणकरणपरूवणा आघविज्जइ। सेत्तं ठाणे॥४७॥ अर्थ - वह आत्मा, इस प्रकार ज्ञाता और इसी प्रकार विज्ञाता होता है। स्थानांग में चरण करण की प्ररूपणा है। यह स्थानांग का स्वरूप है। विवेचन - क्रिया की अपेक्षा - स्थानांग पढ़ने वाला, जैसा स्थानांग का स्वरूप है, उसी स्वरूप वाला साक्षात् मूर्तिमान् स्थानांग बन जाता है - स्थानांग में जिन्हें छोड़ने योग्य कहा है, उन स्थानों से दूर हो जाता है, जिन्हें आदरने योग्य कहा है, उन स्थानों को प्राप्त करता है और जिनसे उदासीन रहने के लिए कहा है, उन स्थानों में मध्यस्थ रहता है। ज्ञान की अपेक्षा - स्थानांग में जैसा तत्त्व का ज्ञान और विज्ञान बताया है, उसका ज्ञाता और विज्ञाता बन जाता है। इस प्रकार स्थानांग में चरणकरण की प्ररूपणा कही जाती है। यह वह स्थानांग है। अब सूत्रकार चौथे अंग का परिचय देते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy