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________________ श्रुत ज्ञान के भेद-प्रभेद - आचारांग २३१ समवाय ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति ६. ज्ञाताधर्म कथा ७. उपासकदसा ८. अंतकृतदसा ९. अनुत्तरौपपात्तिकदसा १०. प्रश्नव्याकरण ११. विपाकश्रुत और १२. दृष्टिवाद। विवेचन - जो बारह अंग वाले श्रुत-पुरुष के अन्तर्गत श्रुत हैं यह 'अंग प्रविष्ट' है अथवा जिस श्रुतविभाग के सभी सूत्र, गणधर रचित ही हों, वे 'अंगप्रविष्ट' हैं अथवा जिस श्रुत-विभाग के सभी सूत्र, सर्वक्षेत्र और सर्वकाल में नियम से रचे जाते हैं और अर्थ और क्रम की अपेक्षा सदा ही वैसे ही होते हैं, वे 'अंग प्रविष्ट' हैं। १. आचार अंग-इसमें आचार का वर्णन है। २. सूत्रकृत अंग-इसमें जैन-अजैन मत सूत्रित है। ३. स्थान अंग-इसमें तत्त्वों की संख्या बताई है। ४. समवाय अंग-इसमें तत्त्वों का निर्णय किया है। ५. व्याख्या प्रज्ञप्ति-इसमें तत्त्वों की व्याख्या की गई है। ६. ज्ञाता-धर्म-कथा अंग-इसमें उन्नीस दृष्टांत और दो सौ छह धर्मकथाएँ हैं। ७. उपासकदसा अंग-इसमें श्रमणों के उपासकों में से दस श्रावकों के चरित्र हैं। ८. अन्तकृतदसा अंग-इसमें जिन्होंने कर्मों का अन्त किया-ऐसे में से नब्बे साधुओं के चरित्र हैं। ९. अनुत्तर औपपातिक-इसमें अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुए ऐसे में से तेतीस साधुओं के चरित्र हैं। १०. प्रश्नव्याकरण-इसमें पाँच आस्रव और पाँच संवर का वर्णन है। ११. विपाक-इसमें पाप फल के दस और पुण्य फल के दस चरित्र हैं। १२. दृष्टिवाद-इसमें नाना दृष्टियों का वाद था। ... स्थान - इनमें १. आचारांग, श्रुतपुरुष का दाहिना पैर है। २. सूत्रकृतांग, बायाँ पैर है। ३. स्थानांग, दाहिनी पिण्डी है। ४. समवायांग, बायीं पिण्डी है। ५. भगवती, दाहिनी उरु-साथल-जंघा है। ६. ज्ञाताधर्म कथा, बायीं उरु है। ७. उपासकदसा, नाभि है। ८. अन्तकृतदसा, वक्षस्थल है। ९. अनुत्तर + औपपातिक, दाहिना बाहु है। १०. प्रश्नव्याकरण, बायाँ बाहु है। ११. विपाकश्रुत, ग्रीवा है। १२. दृष्टिवाद, मस्तक था। अभी श्रुतपुरुष का मस्तक व्यवच्छिन्न है, केवल धड़ शेष है। जिस प्रकार कई एक युद्धवीरों का मस्तक छिन्न होने के बाद, उसका शेष धड़ कुछ काल तक लड़ता रहता है, उसी प्रकार यह धड़ रूप एकादशांगी भी छिन्न होते-होते पाँचवें आरे के अंत तक कर्मक्षय करती रहेगी। - अब सूत्रकार प्रत्येक अंग का संक्षिप्त परिचय देते हैं, उनमें सब से पहले प्रथम अंग का परिचय देते हैं। . १. आचारांग - से किं तं आयारे? आयारे णं समणाणं णिग्गंथाणं आयार-गोयर-वेणइयसिक्खा-भासा-अभासा-चरण-करण-जायामायावित्तीओ आघविजंति, से समासओ पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-णाणायारे, दंसणायारे, चरित्तायारे, तवायारे, वीरियायारे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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