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________________ संघ स्तुति ** ********************** अनशन आदि बारह प्रकार के तप रूप बारह 'आरे' हैं तथा सुदृढ़ सम्यक्त्व रूप 'पृष्ठ भूमि' है। ऐसे हे संघ चक्र! तुम्हें नमस्कार हो। तुम 'अप्रति चक्र' हो-जैसे तुम संसार शत्रु का उच्छेद करने में समर्थ चक्र हो, वैसे तुम्हारे समान अन्य कोई भी मत चक्र संसार शत्रु का उच्छेद करने में समर्थ नहीं है। ऐसे 'हे संघ चक्र! तुम्हारी सदा जय हो।' अब आचार्यश्री रथ की तीसरी उपमा से संघ की स्तुति करते हैं - भई सील-पडागूसियस्स, तव-णियम-तुरय-जुत्तस्स। संघरहस्स भगवओ, सज्झाय-सुणंदिघोसस्स॥६॥ रथ की उपमा वाले हे संघ! तुम शीलरूप ऊँची पताका वाले, तप नियम रूप तुरंगों से युक्त. और स्वाध्याय रूप सुनन्दिघोष सहित हो। जैसे - उत्तम रथ के ऊपर ऊंची फहराती हुई पताको । होती है, वैसे ही तुम में अठारह सहस्र शीलांग रूप ऊँची फहराती हुई पताका है। जैसे उत्तम रथ में तीव्र गति वाले अनेक अश्व-घोड़े होते हैं, वैसे ही तुम में तप और नमस्कार सहित-नवकारसी आदि नियम रूप संसार अटवी को शीघ्र पार करने वाले अनेक घोड़े हैं। जैसे उत्तम रथ, बारह प्रकार के मंगल-वाद्यों की ध्वनि से सुशोभित होता है, वैसे ही तुम भी वाचना आदि पाँच प्रकार की स्वाध्याय रूप मंगल ध्वनि से सुशोभित हो। :: ऐसे हे सन्मार्गगामी, मुक्तिनगर प्रापक संघ रथ भगवन्! तेरा भद्र हो-भला हो, कल्याण हो। - अब आचार्यश्री चौथी कमल की उपमा से संघ की स्तुति करते हैं - स, कम्म-रय-जलोह-विणिग्गयस्स, सुय-रयण-दीहनालस्स। • पंच-महव्वय-थिर-कन्नियस्स गुणकेसरालस्स॥७॥ कमल की उपमा वाले हे संघ! तुम कर्म रूप ‘रज'-कीचड़ और जलौध-जल समूह से बारह निकले हुए हो। जैसे-लोक में सरोवर होता है, वैसे ही लोक में यह संसार है। जैसे-सरोवर में कीचड़ और जल होता है, वैसे ही संसार में जन्म-मरण के हेतुभूत ज्ञानावरणीयादि आठ कर्म में से मोहनीय कर्म रूप कीचड़ तथा सात कर्म रूप जल है। जैसे - कमल, सरोवर के कीचड़ और जल से ऊपर उठ जाता है, वैसे ही संघ, कर्म रूपी कीचड़ और जल से ऊपर उठा हुआ होता है। श्रावक देश से ऊपर उठा हुआ होता है तथा साधु, सर्वथा ऊपर उठे हुए होते हैं। चौथे गुणस्थान वाले अविरत-व्रत रहित, सम्यग्दृष्टि को भी अर्द्ध-पुद्गल परावर्तन से भी न्यून संसार ही शेष रहता है अथवा एक कोटि कोटि सागरोपम से भी न्यून कर्म शेष रहते हैं। इस अपेक्षा से वे भी ऊपर उठे हुए हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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