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नन्दी सूत्र
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संघ स्तुति अब आचार्य श्री ज्ञान दर्शन चारित्रतप गुणमय चतुर्विध जैन श्री संघ की आठ उपमाओं द्वारा स्तुति करते हैं। उसमें सर्व प्रथम नगर की उपमा द्वारा स्तुति करते हैं -
गुण-भवण-महण सुय-रयण, भरिय दंसण विसुद्ध-रत्थागा। संघनगर! भदं ते, अखंड चारित्तपागारा॥४॥
नगर की उपमा वाले हे संघ! तुम 'गुण-भवन-गहन' हो। जैसे - उत्तम नगर में भवन होते हैं, से ही तुम में उत्तरगुण-तप नियमादि रूप भवन हैं। जैसे उत्तम नगर में भवन प्रचुर होते हैं। जैसे उत्तम नगर भवनों की प्रचुरता से गहन-संकड़ा होता है, वैसे ही तुम में उत्तरगुण रूप भवन प्रचुर हैं। वैसे तुम भी उत्तर गुण रूप भवनों से गहन हो और चारों तरफ गुण ही गुण दिखाई देते हैं। __तुम 'श्रुत-रत्नों से भरे हुए' हो जैसे उत्तम नगर नानाविध रत्नों से परिपूर्ण होता है, वैसे तुम आचारांग आदि नानाविध श्रुतरूप रत्नों से उनके जानकार ज्ञानियों से परिपूर्ण हो। ..
तुम सम्यग्दर्शन रूप विशुद्ध रथ्यावाले हो-जैसे उत्तम नगर के मार्ग, कूड़े-कर्कट, पत्थर आदि से रहित शुद्ध होते हैं, वैसे ही तुम में सम्यग्दर्शन रूप मार्ग है, जो मिथ्यात्व रूप रज से रहित, शुद्ध है। क्षायिकादि सम्यक्त्व वाले हो। ___तुम 'अखण्ड चारित्र रूप प्राकारवाले' हो। जैसे-उत्तम नगर, कोट युक्त होता है, वैसे ही तुम अहिंसादि मूल गुणमय चारित्र रूप कोट युक्त हो। जैसे - उत्तम नगर का प्राकार अखंड होता है, वैसे ही तुम्हारा चारित्र रूप कोट अखण्ड है-खण्डना विराधना से रहित है। संत-सतियाँ क्रियापात्र हैं।
ऐसे हे 'संघ रूप नगर! तेरा भद्र हो'-तेरा भला हो, कल्याण हो। ' अब आचार्यश्री युद्ध में काम आने वाले चक्र की दूसरी उपमा से संघ की स्तुति करते हैं - संजम-तव-तुंबारयस्स, णमो सम्मत्त-पारियल्लस्स। अप्पडिचक्कस्स जओ, होउ सया संघचक्कस्स॥५॥
चक्र की उपमा वाले हे संघ! तुम 'संयम रूप तुम्ब, तप रूप आरे और सम्यक्त्व रूप पृष्ठभूमि वाले हो' - चक्र के मध्यभाग में रही हुई नाभि को 'तुम्ब' कहते हैं। तुम्ब के चारों ओर लगे हुए दण्डों को-तीरों को, 'आरे' कहते हैं और आरों के ऊपर सभी ओर लगे हुए गोल पाटले को - पुट्ठों को (पूठी को) 'पृष्ठ भूमि' कहते हैं। जैसे चक्र में तुम्ब, आरे और पृष्ठ भूमि ये ती. वस्तुएँ होती हैं, वैसे ही तुम में पृथ्वीकाय संयम आदि सतरह प्रकार का संयम रूप 'तुम्ब' है
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