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________________ १९२ नन्दी सूत्र ****************************** ***** ****** अर्थ - इस प्रकार आभिनिबोधिक ज्ञान के अट्ठावीस भेद हैं। अब मैं इसके व्यंजन अवग्रह की दृष्टांतों से प्ररूपणा करूँगा। पहले प्रतिबोधक (जगाने वाले) के दृष्टांत से। दूसरे मल्लक (मिट्टी के शकोरे) के उदाहरण से। विवेचन - व्यंजन अवग्रह के चार, अर्थ अवग्रह के छह, ईहा के छह, अवाय के छह और धारणा के छह, यों (४+६+६+६+६=२८) इस प्रकार श्रुत-निश्रित मतिज्ञान के २८ भेद हैं। प्रश्न - इनमें से एक-एक भेद के कितने भेद हैं ? . उत्तर - बारह-बारह प्रभेद हैं। वे इस प्रकार है - १. बहु - एक काल में एक साथ बहुत . पदार्थ जानना। २. अबहु-एक काल में एक पदार्थ जानना। ३. बहुविध - एक काल में एक या अनेक पदार्थों को अनेक गुण पर्यायों से जानना। ४. अबहुविध - एक काल में एक या अनेक पदार्थों के एक गुण पर्याय को जानना। ५. क्षिप्र - एक काल में एक या अनेक पदार्थों के एक या अनेक गुण पर्यायों को शीघ्र जानना। ६. अक्षिप्र (चिर) - उन्हें विलम्ब से जानना। ७. अनिश्रित - उन्हें संकेत आदि की सहायता के बिना स्वरूप से जानना। ८. निश्रित - उन्हें संकेत आदि की सहायता से जानना। ९. निश्चित-निश्चित रूप में जानना। १०. अनिश्चित (संदिग्ध शंका युक्त) जानना। ११. ध्रुव - सदा ही बहु आदि रूप से जानना। १२. अध्रुव - कभी बहु आदि रूप से और कभी अबहु आदि रूप से जानना। उपर्युक्त २८ भेदों को इन बारह भेदों से गुणित करने पर (२८x१२-३३६) तीन सौ छत्तीस भेद होते हैं। इसमें यदि धारणा के अन्तर्गत आने वाला जातिस्मरण, पृथक् करके सम्मिलित किया जाये तो ३३६+१=३३७ भेद होते हैं। इसमें अश्रुतनिश्रित चार बुद्धियाँ मिलाने से मतिज्ञान के ३३७+४=३४१ भेद होते हैं। अब सत्रकार श्रोत्र इंद्रिय व्यंजन अवग्रह को स्पष्ट करने के लिए प्रतिज्ञा अनुसार पहला प्रतिबोधक दृष्टांत प्रस्तुत करते हैं। से किं तं पडिबोहगदिटुंतेणं? पडिबोहगदिद्रुतेणं से जहा णामए केइं पुरिसे कंचि पुरिसं सुत्तं पडिबोहिज्जा, अमुगा अमुगत्ति? प्रश्न - प्रतिबोधक दृष्टांत से व्यंजन अवग्रह की प्ररूपणा किस प्रकार है? उत्तर - कल्पना करो-किसी नाम वाला कोई एक पुरुष है। वह किसी अन्य सोये हुए पुरुष को जगाना चाहता है। अतएव वह सोये हुए पुरुष को एक बार शब्द करता है-'अमुक!' पुनः शब्द करता है-'अमुक!' विवेचन - गहरी निद्रा में सोये हुए मनुष्य के कानों में शब्द करने वाले के पहले दूसरे जो शब्द पहुँचते हैं, उनकी वह धारणा नहीं कर पाता कि 'अमुक ने मुझे शब्द किया'। उनका अवाय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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