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________________ नन्दी सूत्र १९. चंडकौशिक सर्प ( साँप ) चौबीसवें तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दीक्षा लेकर पहला चातुर्मास अस्थिक ग्राम में किया। चातुर्मास की समाप्ति के बाद विहार करके भगवान् श्वेताम्बिका नगरी की ओर पधारने लगे। थोड़ी दूर जाने पर कुछ ग्वालों के लड़कों ने भगवान् से प्रार्थना की- " भगवन् ! श्वेताम्बिका जाने के लिये यह मार्ग छोटा एवं सीधा तो हैं, किंतु बीच में एक दृष्टिविष सर्प रहता है । इसलिए आप दूसरे मार्ग से श्वेताम्बिका पधारिये।" बालकों की प्रार्थना सुन कर भगवान् ने उपयोग लगाया - " वह सर्प, बोध पाने योग्य हैं" - ऐसा ज्ञान में देख कर भगवान् उसी मार्ग से पधारने लगे। चलते-चलते भगवान् उस सर्प के बिल के पास पहुँचे। वहाँ जाकर बिल के पास ही कायोत्सर्ग करके खड़े हो गये। थोड़ी देर बाद वह सर्प बिल से बाहर निकला। अपने बिल के पास ध्यानस्थ भगवान् को देख कर उसने सोचा- " यह कौन व्यक्ति है, जो यहाँ आकर खड़ा है ? इसको मेरा जरा भी भय नहीं है।" ऐसा सोच कर उसने अपनी विषभरी दृष्टि भगवान् पर डाली, किंतु इसका भगवान् पर कुछ भी असर नहीं हुआ । अपने प्रयत्न को निष्फल देखकर सर्प का क्रोध बढ़ गया। एक बार सूर्य की तरफ देखकर उसने भगवान् पर फिर विष भरी दृष्टि फेंकी, किन्तु इससे भी उसे सफलता नहीं मिली। तब कुपित हो कर वह भगवान् के समीप आया और उसने भगवान् के पैर के अंगूठे को डस लिया। इतना होने पर भी भगवान् अपने ध्यान से चलित नहीं हुए। भगवान् के अंगूठे के रक्त का स्वाद चण्डकौशिक को विलक्षण लगा। रक्त का विशिष्ट आस्वाद जान कर वह सोचने लगा- "यह कोई सामान्य पुरुष नहीं है। कोई अलौकिक पुरुष लगता है" - ऐसा विचार करते हुए उसका क्रोध शांत हो गया। वह शांत दृष्टि से भगवान् के सौम्य मुख की ओर देखने लगा । ૨૦૮ ***************************** उपदेश के लिये उपयुक्त समय जान कर भगवान् ने फरमाया-' हे चण्डकौशिक ! समझो और अपने पूर्वभव को याद करो। " ************* " हे चण्डकौशिक ! तुमने पूर्वभव में दीक्षा ली थी। तुम एक तपस्वी साधु थे। पारणे के दिन गोचरी लेकर वापिस लौटते हुए तुम्हारे पैर के नीचे दब कर एक मेंढक मर गया था। उसी समय तुम्हारे एक शिष्य ने उस पाप की आलोचना करने के लिये तुम्हे कहा, किंतु तुमने उसके कथन पर कोई ध्यान नहीं दिया। गुरु महाराज महान् तपस्वी हैं। अभी नहीं, तो शाम को आलोचना कर लेंगे - ऐसा सोच कर शिष्य मौन रहा। शाम को प्रतिक्रमण करके तुम बैठ गये, परन्तु उस पाप की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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