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मति ज्ञान - नन्दिषेण की युक्ति
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६. नन्दिषेण की युक्ति राजगृह के स्वामी राजा श्रेणिक के एक पुत्र का नाम 'नन्दिषेण' था। यौवन अवस्था आने पर राजा ने नन्दिषेण का विवाह अनेक राजकन्याओं के साथ किया। उन रानियों का रूप-लावण्य अनुपम था। उनके सौन्दर्य को देख कर अप्सराएँ भी लज्जित होती थीं। कुमार नन्दिषेण उनके साथ सुखपूर्वक समय बिताने लगा। ___एक समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी राजगृह पधारे। राजा श्रेणिक भगवान् को वन्दना करने गया। कुमार नन्दिषेण भी अपने अन्त:पुर के साथ भगवान् को वन्दना नमस्कार करने गया। भगवान् ने धर्मोपदेश दिया। उपदेश सुन कर नन्दिषेण को वैराग्य उत्पन्न हो गया। राजा श्रेणिक की आज्ञा लेकर नन्दिषेण कुमार ने भगवान् के पास दीक्षा अंगीकार कर ली। उसकी बुद्धि अति तीक्ष्ण थी। थोड़े ही समय में उसने बहुत-सा ज्ञान उपार्जन कर लिया। उसके उपदेश से प्रभावित होकर कई भव्यात्माओं ने उसके पास दीक्षा अंगीकार कर ली। कालान्तर में भगवान् की आज्ञा लेकर वह अपने शिष्यों सहित पृथक् विचरने लगा। - कुछ समय बाद उसके शिष्य वर्ग में से किसी एक शिष्य के चित्त में काम-वासना उत्पन्न हो गई। वह साधुव्रत को छोड़ देना चाहता था। शिष्य के चित्त की चञ्चलता को जान कर नन्दिषेण मुनि ने विचार किया कि किसी उपाय से इसे पुनः संयम में स्थिर करना चाहिए। ऐसा सोच कर वे अपने सभी शिष्यों को साथ लेकर राजगृह आये।
मुनियों का आगमन सुन कर राजा श्रेणिक, मुनि-वन्दन करने लगा। उसके साथ उसका अन्तःपुर तथा नन्दिषेण कुमार का अन्तःपुर भी था। नंदिषेण मुनि की रानियों के अनुपम रूपसौन्दर्य को देख कर उस मुनि के मन में विचार उत्पन्न हुआ-'धन्य है मेरे गुरु महाराज को, जो अप्सरा सरीखी सुन्दर रानियों को तथा इस वैभव को छोड़कर शुद्ध भाव से संयम का पालन कर रहे हैं। मुझ पापात्मा को धिक्कार है जो संयमव्रत लेकर भी ऐसा नीच विचार कर रहा हूँ। इन विचारों को हृदय से निकाल कर मुझे दृढ़तापूर्वक संयम का पालन करना चाहिए' ऐसा विचार कर वह साधु संयम में विशेष रूप से स्थिर हो गया।
मुनि नन्दिषेण ने अपनी बुद्धि से उन मुनि को संयम में स्थिर किया, यह उनकी 'पारिणामिकी बुद्धि' थी।
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