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________________ १४८ नन्दी सूत्र *********************************************************** ********************** कमल के आकार सेंध लगाना और मूंग के दानों को अधोमुख डाल देना, ये दोनों कर्मजा बुद्धि के दृष्टान्त हैं। बहुत दिनों तक कार्य करते रहने के कारण चोर और किसान को ऐसी कुशलता प्राप्त हो गई थी। ३. कौलिक - बहुत दिनों के अपने अभ्यास के कारण जुलाहा अपनी मुट्ठी में तन्तुओं को लेकर यह बतला सकता है कि इतने तन्तुओं से कपड़ा बन जायेगा या नहीं? ४. दर्वी - चाटु बनाने वाला यह बतला सकता है कि इस चाटु में इतना अन्न समाएगा। ... ५. मौक्तिक - मणिहार (मणियों को पिरोने वाला) मोती को ऊपर आकाश में पैंक कर, नीचे सूअर के बाल को या तार को इस तरह खड़ा रख सकता है कि ऊपर से नीचे गिरते हुए मोती के छेद में वह पिरोया जा सके। ६. घृत विक्रयी - घी बेचने वाला अभ्यस्त पुरुष चाहे तो गाड़ी में बैठा हुआ ही इस तरह से घी नीचे डाल सकता है कि वह घी, गाड़ी के कुण्डिका नाल. में ही जाकर गिरे। प्लवक- उछलने में कशल व्यक्ति. आकाश में उछलना आदि क्रियाएं कर सकता है। ८. तुन्नानग - सीने के कार्य में चतुर दर्जी, कपड़े को इस तरह सी सकता है कि दूसरे को पता ही न चले कि यह सीया हुआ है या नहीं अथवा कपड़े के छेद को सुनने में कुशल तुनार, कपड़े के छेद को इस तरह तुन देता है कि यह पता ही न चले कि कपड़े में पहले यहाँ छेद था। ९. वर्द्धकी - बढ़ई अपने कार्य में विशेष अभ्यस्त होने से बिना मापे ही बतला सकता है कि ऐसी गाड़ी बनाने में इतनी लकड़ी लगेगी अथवा वास्तु शास्त्र के अनुसार भूमि आदि का ठीक परिमाण किया जा सकता है। । १०. आपूपिक - हलवाई, अपूप (मालपूए) आदि को बिना गिने ही उनका परिणाम या गिनती बता सकता है। . ११. घटकार - घड़े बनाने में चतुर कुम्हार, पहले से उतनी ही प्रमाण युक्त मिट्टी उठा कर चाक पर रखता है कि जितने से घड़ा बन जाये। १२. चित्रकार - नाटक की भूमिका को देखते ही नाटक के प्रमाण को जान सकता है अथवा रंग करने की कूची में उतना ही रंग लेता है जितने से उसका कार्य पूरा हो जाय अर्थात् चित्र अच्छी तरह रंगा जा सके। ये उपरोक्त बारह-पुरुष अपने-अपने कार्य में इतने निपुण हो जाते हैं कि इनकी कार्यकुशलता को देख कर लोग आश्चर्य करने लगते हैं। बहुत समय तक अपने कार्य में अभ्यास करते रहने के कारण इनको ऐसी कुशलता प्राप्त हो जाती है। इसलिए इसे 'कर्मजा बुद्धि' कहते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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