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________________ नन्दी सूत्र विवेचन - जिस जीव को आभिनिबोधिक ज्ञान होता है, उसे नियम से श्रुत ज्ञान होता है और जिस जीव को श्रुतज्ञान होता है, उसे नियम से आभिनिबोधिक ज्ञान होता है। इस प्रकार ये दोनों ज्ञान जिस जीव में होते हैं, वहाँ नियम से एक के होने पर दूसरा अवश्य होता है। . यह कथन ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम के कारण आत्मा में उत्पन्न ज्ञानलब्धि की अपेक्षा समझना चाहिए, क्योंकि लब्धि की अपेक्षा ही एक जीव में एक समय में, एक से अधिक ज्ञान पाये जाते हैं। परन्तु यह कथन ज्ञान के उपयोग की अपेक्षा नहीं समझना चाहिए, क्योंकि एक जीव में एक समय में एक से अधिक ज्ञान का या दर्शन का उपयोग नहीं पाया जाता। आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान ये दोनों यद्यपि लब्धि की अपेक्षा एक जीव में एक साथ नियम से पाये जाते हैं, फिर भी ये दोनों स्वरूप से एक नहीं हैं, क्योंकि इन दोनों में अन्तर है । इसलिए धर्म के आदि आचार्य-तीर्थंकर गणधर आदि, इन दोनों में भिन्नता बतलाते हैं। ९८ ****************************** आभिनिबोधिक ज्ञान - यहाँ 'अभि' का अर्थ है- अभिमुख, 'नि' का अर्थ है- नियत और 'बोध' का अर्थ है - जानना। अतएव द्रव्य इन्द्रिय और द्रव्य मन के कारण द्रव्य इन्द्रियों और द्रव्य मन ग्रहण कर सके, ऐसे योग्य क्षेत्र में रहे हुए रूपी या अरूपी द्रव्यों को आत्मा नियत रूप से जिस ज्ञान उपयोग परिणाम विशेष से जानती है, उसे 'आभिनिबोधिक ज्ञान' कहते हैं। श्रुतज्ञान - यहाँ सुनने का अर्थ है- १. रूपी अरूपी पदार्थों के वाचक शब्द को मतिज्ञान से सुनकर, पढ़कर, या स्मरण कर, उसे और उससे वाच्य अर्थ को, उस वाचक शब्द और उससे वाच्य अर्थ में जो परस्पर वाच्य वाचक संबंध रहा हुआ है, उसकी पर्यालोचना पूर्वक शब्दोल्लेख सहित जानना । *************************** २. इसी प्रकार रूपी अरूपी पदार्थ को मतिज्ञान से ग्रहण कर या स्मरण कर उसे और उसके वाचक शब्द को, उस वाच्य अर्थ और उसके वाचक शब्द में जो परस्पर वाच्य वाचक संबंध रहा हुआ है, उसकी पर्यालोचना पूर्वक शब्द उल्लेख सहित जानना । अतएव द्रव्य इन्द्रिय और द्रव्यमन के सहाय से वाचक शब्द या वाच्य से रूपी अरूपी अर्थ को मतिज्ञान से ग्रहण कर या स्मरण कर उस वाचक शब्द और उससे वाच्य अर्थ में जो परस्पर वाच्य वाचक संबंध रहा हुआ है, उसकी पर्यालोचना पूर्वक शब्द उल्लेख सहित, शब्द व अर्थ को आत्मा जिस ज्ञान उपयोग परिणाम विशेष से जानती है, उसे 'श्रुतज्ञान' कहते हैं। जैसे 'घट' पदार्थ के वाचक 'घट' शब्द को सुन कर वह 'घट' पदार्थ का वाचक है और 'घट' पदार्थ 'घट' शब्द से वाक्य है, इस प्रकार जो 'घट' शब्द में 'घट' पदार्थ की वाचकता है और 'घट' पदार्थ में 'घट' शब्द से वाध्यता है, उस परस्पर में घट पदार्थ वाचकत्व, 'घट' शब्द वाच्यत्व रूप रहे हुए सम्बन्ध की पर्यालोचना पूर्वक 'घट' शब्द व 'घट' पदार्थ को जानना 'घट' विषयक श्रुतज्ञान है। Jain Education International For Personal & Private Use Only " www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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