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________________ केवलज्ञान का स्वामी ८९ * * * * ** * * * * * * * * * * १. चरम समय की अयोगी भवस्थ अवस्था का केवलज्ञान तथा २. अचरम समय की सयोगी भवस्थ अवस्था का केवलज्ञान। ये अयोगी भवस्थ केवलज्ञान के भेद हुए। यह भवस्थ केवलज्ञान का प्ररूपण हुआ। . विवेचन - १. प्रथम समय अयोगी भवस्थ केवलज्ञान, जिन्हें अयोगी अवस्था प्राप्त हुए पहला समय ही है, ऐसे मनुष्य भव में रहे हुए संसारस्थ केवलियों का केवलज्ञान और २. अप्रथम समय अयोगी भवस्थ केवलज्ञान, जिन्हें अयोगी अवस्था प्राप्त किये पहला समय बीत गया है। ऐसे मनुष्य भव में रहे हुए संसारस्थ केवलियों का केवलज्ञान। अथवा-१. चरम समय अयोगी भवस्थ केवलज्ञान-जिन्हें अयोगी अवस्था का वर्तमान समय अन्तिम समय है, ऐसे मनुष्य भव में रहे हुए संसारस्थ केवलियों का केवलज्ञान और २. अचरम समय अयोगी भवस्थ केवलज्ञान-जिन्हें अयोगी अवस्था का वर्तमान समय में अन्तिम समय नहीं आया है, ऐसे मनुष्य भव में रहे हुए संसारस्थ केवलियों का केवलज्ञान। - सयोगी अवस्था में उत्पन्न हुआ केवलज्ञान, अयोगी अवस्था प्राप्त कर लेने के पश्चात् भी बना रहता है। चाहे अयोगी अवस्था का पहला समय हो या दूसरे तीसरे आदि समय हों अथवा अन्तिम समय हो, या उससे पूर्व के दूसरे तीसरे आदि समय हों, केवलज्ञान विद्यमान रहता है, नष्ट नहीं होता। यह अयोगी भवस्थ केवलज्ञान है। यह भवस्थ केवलज्ञान है। से किं तं सिद्धकेवलणाणं? सिद्धकेवलणाणं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा - अणंतरसिद्धकेवलणाणं च परंपरसिद्धकेवलणाणं च॥२०॥ ... अर्थ - प्रश्न - वह सिद्ध केवलज्ञान क्या है ? उत्तर. - सिद्ध केवलज्ञान के दो भेद हैं - वे इस प्रकार हैं - १. अनन्तरसिद्ध केवलज्ञान और २. परम्पर सिद्ध केवलज्ञान। . विवेचन - १. अनन्तर सिद्ध केवलज्ञान - जिन्हें सिद्ध हुए एक समय का भी अन्तर नहीं हुआ, एक समय भी नहीं बीता, जिन्हें सिद्धत्व का पहला समय है, जो वर्तमान समय में सिद्ध हो' रहे हैं, उनका केवलज्ञान और २. परम्पर सिद्ध केवलज्ञान - जिन्हें सिद्ध हुए समयों की 'एक दो' यो परम्परा आरम्भ हो चुकी है, जिन्हें सिद्धत्व प्राप्ति का पहला समय बीत गया है, उनका केवलज्ञान। संसारी अवस्था में प्राप्त केवलज्ञान, सिद्ध दशा में भी विद्यमान रहता है चाहे सिद्धत्व का प्रथम समय हो, चाहे दूसरे, तीसरे आदि समय हों। - सिद्धत्व दशा का कभी अन्त नहीं आता। अतएव उसमें 'चरम अचरम' से भेद नहीं किये गये। सिद्ध अचरम ही होते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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