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________________ ६७ उदकज्ञात नामक बारहवां अध्ययन - प्रयोगजनित पुद्गल परिणमन cococccccccccccccccccccccccccccccccccccccccccccx तए णं सुबुद्धी जेणेव जियसनू तेणेव उवागच्छइ २ ता एवं वयासी-एवं खलु सामी! मए थेराणं अंतिए धम्मे णिसंते। से वि य धम्मे इच्छिय पडिच्छिए ३। तए णं अहं सामी! संसारभउविगे भीए जाव इच्छामि णं तुन्भेहिं अब्भणुण्णाए स० जाव पव्वइत्तए। तए णं जियसत्तू सुबुद्धिं एवं वयासी-अच्छसु ताव देवाणुप्पिया! कइवयाई वासाइ उरालाई जाव भुंजमाणा तओ पच्छा एगयओ थेराणं अंतिए मुंडे भवित्ता जाव पव्वइस्सामो। शब्दार्थ - अच्छसु - रहो, एगयओ - एक साथ। - भावार्थ - तत्पश्चात् अमात्य सुबुद्धि जितशत्रु के पास गया - उसने इस प्रकार कहा - स्वामी! मैंने स्थविर मुनियों से धर्म सुना है। वह धर्म मुझे बहुत इच्छित, अभीप्सित एवं रुचिकर है। स्वामी! मैं संसार भय से भयभीत हूँ यावत् आप से अनुज्ञा प्राप्त कर प्रव्रजित होना चाहता हूँ। यह सुनकर राजा जितशत्रु ने अमात्य सुबुद्धि से कहा - देवानुप्रिय! कुछ वर्ष तक विपुल यावत् सांसारिक भोगों को भोगते हुए संसार में रहो तत्पश्चात् एक साथ ही हम स्थविर मुनियों के पास मुण्डित होकर यावत् श्रमण दीक्षा स्वीकार करेंगे। , (२७) तए णं सुबुद्धी जियसत्तुस्स रण्णो एयमढें पडिसुणेइ। तए णं तस्स जियसत्तुस्स रण्णो सुबुद्धिणा सद्धिं विपुलाई माणुस्सगाई जाव पच्चणुब्भवमाणस्स दुवालस वासाइं वीइक्कताई। तेणं कालेणं तेणं समएणं थेरागमणं। तए णं जियसत्तू धम्म सोच्चा एवं जं णवरं देवाणुप्पिया! सुबुद्धि आमंतेमि जेट्टपुत्तं रज्जे ठवेमि तए णं तुम्भं जाव पव्वयामि। अहासुहं देवाणुप्पिया! तए णं जियसत्तू राया जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता सुबुद्धिं सहावेइ २. त्ता एवं वयासी-एवं खलु मए थेराणं जाव पव्वजामि, तुमं णं कि करेसि? तए णं सुबुद्धी जियसत्तुं एवं वयासी-जाव के अण्णे आहारे वा जाव पव्वयामि। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
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