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चन्द्रमा नामक दसवां अध्ययन
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SOOOOOOOOOOOOOOOOO जाव अहिए मंडलेणं । तयाणंतरं च णं बीयाचंदे पडिवयाचंदं पणिहाय अहिययराए वणेणं जाव अहिययराए मंडलेण । एवं खलु एएणं कमेणं परिवहेमाणे २ जाव पुण्णिमाचंदे चाउद्दसिं चंदं पणिहाय पडिपुण्णे वण्णेणं जाव पडिपुण्णे मंडलेणं । एवामेव समणाउसो ! जाव पव्वइए समाणे अहिए खंतीए जाव बंभचेरवासेणं तयाणंतरं च णं अहिययराए खंतीए जाव बंभचेरवासेणं । एवं खलु एएणं कमेणं परिवडेमाणे २ जाव पडिपुण्णे बंभचेरवासेणं । एवं खलु जीवा वदृंति वा हायंति वा ।
भावार्थ - जैसे शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा का चंद्र अमावस्या के चन्द्र से वर्ण यावत् मंडल में अधिक होता है, उसी प्रकार द्वितीया का चंद्र प्रतिपदा के चन्द्र से वर्ण यावत् मंडल में अधिकतर होता है। इसी क्रम से परिवृद्धि प्राप्त करते-करते पूर्णिमा का चंद्र चतुर्दशी के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण यावत् मंडल में परिपूर्ण होता है।
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वृद्धि का विकास क्रम
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आयुष्मान् श्रमणो! इसी प्रकार जो साधु-साध्वी आचार्य, उपाध्याय से प्रव्रजित होते हैं, वे क्षांति यावत् ब्रह्मचर्यवास में अधिक गुण संपन्न होते हैं। तदनंतर वे क्रमशः क्षांति यावत् ब्रह्मचर्यादि की आराधना में अधिकतर होते जाते हैं। इसी प्रकार उत्तरोत्तर बढ़ते-बढ़ते वे यावत् क्षांति- ब्रह्मचर्य आदि गुणों में परिपूर्ण हो जाते हैं ।
इस क्रम से जीव हानि - वृद्धि प्राप्त करते हैं।
विवेचन - आध्यात्मिक गुणों के विकास में आत्मा स्वयं उपादानकारण है, किन्तु अकेले उपादानकारण से किसी भी कार्य की उत्पत्ति नहीं होती । कार्य की उत्पत्ति के लिए उपादानकारण के साथ निमित्तकारणों की भी अनिवार्य आवश्यकता होती है। निमित्तकारण अन्तरंग बहिरंग आदि अनेक प्रकार के होते हैं। गुणों के विकास के लिए सद्गुरु का समागम बहिरंग निमित्तकारण है तो चारित्रावरण कर्म का क्षयोपशम एवं अप्रमादवृत्ति अन्तरंग निमित्तकारण हैं।
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एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं० दसमस्स णायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते त्ति बेमि ।
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भावार्थ श्री सुधर्मा स्वामी ने कहा हे जंबू ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दसवें ज्ञाताध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञापित किया है। जैसा मैंने सुना है, वैसा कहता हूँ ।
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