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________________ माकन्दी नामक नववां अध्ययन - देवी का दूसरा दुष्प्रयास SwecaneKGROCEROSSAGEKEERIEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEGORK इहभवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाणं जाव संसारं अणुपरियट्टिस्सइ जहाँ वा से जिणरक्खिए। छलिओ अवयक्खंतो णिरावयक्खो गओ अविग्घेणं। तम्हा पवयणसारे णिरावयक्खेण भवियव्वं॥१॥ भोगे अवयक्खंता पडंति संसार सायरे घोरे। भोगेहिं णिरवयक्खा तरंति संसार कंतारं॥२॥ शब्दार्थ - पीहेइ - स्पृहा करता है, णिरावयक्खो - नहीं देखता हुआ। भावार्थ - आयुष्मान श्रमणो! इसी प्रकार जो साधु या साध्वी आचार्य, उपाध्याय से प्रव्रजित होकर फिर मनुष्य जीवन संबंधी काम-भोगों का आश्रय लेता है, उनके लिए याचना करता है, स्पृहा करता है - अमुक कामभोगोपयोगी पदार्थ मुझे बिना मांगे ही मिल जाय, ऐसी अभिलाषा रखता है, वह इस भव में बहुत से श्रमणों, श्रमणियों श्रावकों तथा श्राविकाओं में उपहासास्पद-निंदास्पद होता है यावत् संसार में बार-बार परिभ्रमण करता है। उसकी दशा जिनरक्षित जैसी होती है। गाथा - जैसे माकंदी पुत्र जिनरक्षित रत्नद्वीप देवी को मोहासक्त होकर देखता हुआ छला गया, मारा गया और जिनपालित जिसने देवी की ओर नजर ही नहीं डाली, निर्विघ्नतया अपने स्थान पर पहुँच गया। इस उदाहरण को देखते हुए साधु को प्रवचन सार - भगवान् महावीर स्वामी द्वारा प्रतिपादित उपदेश के निष्कर्ष रूप चारित्र में जो धर्म विपरीत, अन्यत्र कहीं भी दृष्टि न डालते हुए सांसारिक भोगों से आकृष्ट न होते हुए स्थिर रहना चाहिए॥१॥ - जो भोग की ओर दृष्टि लगाए रहते हैं, वे संसार सागर में गिर पड़ते हैं। जो इस ओर आकृष्ट नहीं होते वे संसार रूपी घोर जंगल को पार कर जाते हैं॥२॥ देवी का दूसरा दुष्प्रयास (६०) तए णं सा रयणदीवदेवया जेणेव जिणपालिए तेणेव उवागच्छइ २ त्ता बहूहिं अणुलोमेहि य पडिलोमेहि य खरमहरसिंगारेहि य कलुणेहि य उवसग्गेहि य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
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