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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र පපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපා के, जैसा कि आगे निरूपण किया गया है, तलवार से टुकड़े-टुकड़े क्यों करती? उसकी स्वार्थान्धता और क्रूरता इस और अगले पाठ से स्पष्ट हो जाती है। विषयवासना की अनर्थकारिता का यह स्पष्ट उदाहरण है।
(५८) तए णं सा रयणदीव देवया णिस्संसा कलुणं जिणरक्खियं सकलुसा सेलगपिट्ठाहिं उवयंतं - दास! मओसि ति जंपमाणी अप्पत्तं सागर सलिलं गेण्हिय बाहाहिं आरसंतं उई उव्विहइ अंबरतले ओवयमाणं च मंडलग्गेण पडिच्छित्ता णीलुप्पलगवलअयसिप्पगासेण असिवरेणं खंडाखंडिं करेइ २ ता तत्थ विलवमाणं तस्स य सरस वहियस्स घेत्तूणं अंगमंगाई सरुहिराई उक्खित्तबलिं चउद्दिसिं करेइ सा पंजली पहिट्ठा।
शब्दार्थ - उवयंतं - गिरते हुए, आरसंतं - चिल्लाते, चीखते हुए, उब्विहइ - उछाला, पडिच्छित्ता - झेल (ग्रहण) कर, सरसवहियस्स - अभीप्सा पूर्वक मारा गया। ... भावार्थ - तदनंतर उस नृशंस, कालुष्य पूर्ण भाव युक्त रत्नद्वीप की देवी ने दयनीय जिनरक्षित को शैलक की पीठ से गिरते हुए देखा। वह बोली-रे नीच! तुम मरोगे, यों कहकर उस देवी ने जिनरक्षित को समुद्र में गिरने से पहले ही दोनों हाथों में झेल लिया। उस रोते, चिल्लाते जिनरक्षित को आकाश में ऊपर उछाला। जब वह नीचे गिरने लगा तो उसे अपनी तलवार के अग्र भाग में झेल लिया-पिरो लिया। नील कमल, महिष एवं अलसी पुष्प के सदृश नील आभायुक्त तीक्ष्ण तलवार से उसके टुकड़े-टुकड़े करने लगी। वह विलाप कर रहा था। उसने बड़ी ही दुरभिरुचि के साथ उसका वध कर डाला। खून से लिप्त उसके अंगों को उसने चारों दिशाओं में वायस (कौआ) बलि की तरह फेंक दिया और वह बलि देने की अंअलि बद्ध मुद्रा में अत्यंत हर्षित हो उठी।
(५९) एवामेव समणाउसो! जो अम्हं णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा अंतिए पव्वइए समाणे पुणरवि माणुस्सए कामभोगे आसायइ पत्थयइ पीहेइ अभिलसइ से णं
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