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________________ माकन्दी नामक नववां अध्ययन - देवी का माकंदी पुत्रों को आदेश - १५ 500000GENDECEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEasce .. . (२४) . . तत्थ णं तुब्भे देवाणुप्पिया! वावीसु य जाव विहरेज्जाह। : भावार्थ - देवानुप्रियो! तुम वहाँ वापियों में यावत् सरोवरों में स्नानादि करते हुए, मनोरंजन करते रहना। (२५) जइ णं तुब्भ तत्थ वि उव्विग्गा जाव उप्पुया वा भवेज्जाह तो णं तुब्भे अवरिल्लं वणसंडं गच्छेज्जाह। तत्थ णं दो उऊ सया साहीणा तंजहा - वसंते य गिम्हे य। तत्थ उ सहकार चारुहारो किंसुयकणियारासोगमउडो। ऊसियतिलग-बउलायवत्तो वसंत उऊ-णरवई साहीणो॥१॥ तत्थ य पाडलसिरीससलिलो मलियावासंतियधवलवेलो । सीयलसुरभि अणिलमगरचरिओ गिम्हउऊसागरो साहीणो॥ २॥ शब्दार्थ - अवरिल्लं - पश्चिम दिशावर्ती, सहकार - आम, आयवत्तो - छत्र। भावार्थ - यदि तुम्हारा वहाँ भी मन न लगे यावत् अन्यत्र मनोविनोद की उत्कंठा हो तो तुम पश्चिम दिशावर्ती वनखंड में चले जाना। वहां ग्रीष्म और बसंत-दोनों ऋतुएँ विद्यमान रहती हैं। बसंत ऋतु को यहां राजा के रूपक से वर्णित किया गया है - आम्र की मंजरियाँ ही इसके सुंदर हार हैं। किंसुक-पलाश, कर्णिकार एवं अशोक के पुष्प इसका मुकुट है। ऊँचे तिलक वृक्ष एवं बकुल वृक्ष इसके ऊँचे छत्र हैं। ऐसा बसंत ऋतु रूपी राजा वहाँ सर्वदा सुशोभित है। यहाँ ग्रीष्म ऋतु का सागर के रूपक द्वारा वर्णन किया गया है - .. गुलाब और सरसों के पुष्प ही जिसका जल है। मल्लिका और वासन्तिकी नामक लताएँ जिसकी निर्मल, उज्ज्वल तटभूमि है। शीतल तथा सुगंधित पवन ही जहाँ मगरों का संचलन है। ऐसा ग्रीष्म ऋतु रूपी सागर वहाँ सदैव अपने रूप में विद्यमान रहता है। (२६) ____ तत्थ णं बहूसु जाव विहरेज्जाह। जइ णं तुब्भे देवाणुप्पिया! तत्थ वि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
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