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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र scacacOREIGEORGEORESCREEKERamananewsaneKEERecenar किया। सौधर्म कल्प में देव के रूप में उत्पन्न हुआ। वहाँ आयुष्य पूर्ण कर वह महाविदेह क्षेत्र में सिद्धि-मुक्ति प्राप्त करेगा।
(४३) जहा वि य णं जंबू! धण्णेणं सत्थवाहेणं णो वण्णहे वा णो रूवहेउं वा णो बलहेउं वा णो विसयहेउं वा सुंसुमाए दारियाए मंस सोणिए आहारिए णण्णत्थ एगाए रायगिहं संपावणट्टयाए, एवामेव समणाउसो! जो अम्हं णिगंथो वा णिग्गंथी वा इमस्स ओरालियसरीरस्स वंतासवस्स पित्तासवस्स सुक्कासवस्स सोणियासवस्स जाव अवस्सं विप्पजहियव्वस्स णो वण्णहेउं वा णो रूवहेउं वा णो बलहेउं वा णो विसयहेउं वा आहारं आहारेइ णण्णत्थ एगाए सिद्धिगमण संपावणट्टयाए से णं इह-भवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाणं अच्चणिज्जे जाव वीईवइस्सइ।
__भावार्थ - हे जंबू! जैसे धन्य सार्थवाह ने वर्ण-शारीरिक दीप्ति सुंदरता तथा बल एवं विषय बढ़ाने के लिए पुत्री सुंसमा के मांस-शोणित का आहार नहीं किया। किसी तरह राजगृह पहुँचने हेतु ही वैसा किया। उसी प्रकार आयुष्मन् श्रमणो! जो साधु या साध्वी इस वमन, पित्त, शुक्र, शोणित आदि के स्रोत रूप यावत् विनश्वर औदारिक शरीर की कांति, सुंदरता, बल और विषय-वृद्धि के लिए आहार नहीं करते। एक मात्र मुक्ति-प्राप्त के साधनभूत देह रक्षा हेतु आहार करते हैं, वे बहुत से श्रमण-श्रमणियों-श्रावक-श्राविकाओं के लिए अर्चनीय, पूजनीय होते हैं। संसार रूपी घोर अटवी को पार कर जाते हैं।
(४४) एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं अट्ठारसमस्स णायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते त्ति बेमि।
भावार्थ - श्री सुधर्मा स्वामी ने कहा :- हे जंबू! इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अठारहवें अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादित किया। जैसा उनसे मैंने सुना वैसा ही तुम्हें कहा है, कहता हूँ।
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