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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र saccccccccaEEEEEEEEEEEEEEEEEcccccccccccccccccccx
(३८) तए णं धण्णं सत्थवाहं दोच्चे पुत्ते एवं वयासी-मा णं ताओ! अम्हे जेहें भायरं गुरुदेवयं जीवियाओ ववरोवेमो तुन्भे णं ताओ! ममं जीवियाओ ववरोवेह जाव आभागी भविस्सह। एवं जाव पंचम पुत्ते।
भावार्थ - तब धन्य सार्थवाह के दूसरे पुत्र ने कहा - तात! हमारे गुरु और देव स्वरूप बड़े भाई को मत मारो। मेरे जीवन का अंत कर दो यावत् आप सब राजगृह जाकर अर्थ, धर्म एवं पुण्य के भागी बनें यावत् इसी प्रकार पांचों पुत्रों ने क्रमशः स्वयं को मारने का प्रस्ताव किया। पुत्री की मृत देह से क्षुधा-तृषा की शांति
(३६) तए णं से धण्णे सत्थवाहे पंचपुत्ताणं हियइच्छियं जाणित्ता ते पंच पुत्ते एवं वयासी-मा णं अम्हे पुत्ता! एगमवि जीवियाओ ववरोवेमो। एस णं सुसुमाए दारियाए सरीरए णिप्पाणे जाव जीवविप्पजढे। तं सेयं खलु पुत्ता! अम्हं सुंसुमाए दारियाए मंसं च सोणियं च आहारेत्तए। तए णं अम्हे तेणं आहारेणं अवथद्धा समाणां रायगिहं संपाउणिस्सामो।
शब्दार्थ - जीवविप्पजढे - जीव रहित।
भावार्थ - तदनंतर धन्य सार्थवाह ने पांचों पुत्रों के हृदय की इच्छा-भावना को जानकर कहा - पुत्रो! हम अपने में से किसी एक के भी जीवन का अन्त न करें। पुत्री सुंसुमा का शरीर निष्प्राण यावत् (निश्चेष्ट) जीव रहित है। इसलिए पुत्रो! यही श्रेयस्कर है, उसके शरीर के मांस और रक्त से अपनी भूख प्यास शांत करें। यों आश्वस्त, स्थिर होकर हम राजगृह नगर पहुँच जायेंगे।
.. (४०) तए णं ते पंच पुत्ता धण्णेणं सत्थवाहेणं एवं वुत्ता समाणा एयमढे पडिसुणेति। तए णं धण्णे सत्थवाहे पंचहिं पुत्तेहिं सद्धिं अरणिं करेइ २ त्ता सरगं च करेइ त्ता सरएणं अरणिं महेइ २ त्ता अग्गिं पाडेइ २ त्ता अग्गिं संधुक्खेइ २ ता दारुयाई प(रि)क्खेवेइ २त्ता अग्गिं पजालेइ २त्ता सुंसुमाएदारियाएमसंचसोणियंच आहारेइ।
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