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________________ सुंसुमा नामक अट्ठारहवां अध्ययन - पांचों पुत्रों द्वारा क्रमशः प्राणांत का प्रस्ताव २६१ RECccccccccccccccccccccccccccccccccxccccccccccccx शब्दार्थ - अवथद्धा - स्थिर हुए। भावार्थ - कहीं भी जल न मिलने से वे जहाँ सुसुमा की हत्या की गई थी, वहाँ आए। धन्य सार्थवाह ने अपने पुत्रों से कहा-पुत्रो! बेटी सुंसुमा को छुडाने के लिए तस्कर चिलात के पीछे-पीछे हम सब ओर दौड़ते रहे, जिससे हम भूख-प्यास से व्याकुल हो गए। इस अगम्य अटवी में पानी की हम लोगों ने बहुत खोज़ की किन्तु वह कहीं नहीं मिला। जल न मिलने के कारण अब हम राजगृह नगर पहुँच नहीं सकते। इसलिए देवानुप्रियो! तुम मुझे मार डालो। मेरे मांस और रक्त का आहार करो। जिससे तुम कुछ स्थिर हो पाओगे। वैसा होने के पश्चात् तुम इस दुर्गम वन को पार कर राजगृह नगर पहुँच जाओगे। मित्र जातीयजन, पारिवारिक संबंधी आदि से मिलोगे। वहाँ रहते हुए तुम अर्थ, धर्म और पुण्य के भागी बनोगे-आर्थिक धार्मिक और पुण्य-निष्पन्न जीवन जीओगे। पांचों पुत्रों द्वारा क्रमशः प्राणांत का प्रस्ताव (३७) .. तए णं जेट्टे पुत्ते धण्णेणं सत्थवाहेणं एवं वुत्ते समाणे धण्णं सत्थवाहं एवं वयासी-तुब्भे णं ताओ! अम्हं पिया गुरुजणया देवभूया ठावका पइट्ठावका संरक्खगा संगोवगा। तं कहण्णं अम्हे ताओ! तुन्भे जीवियाओ ववरोवेमो तुन्भं णं मंसं च सोणियं च आहारेमो? तं तुन्भे णं ताओ! ममं जीवियाओ ववरोवेह मंसं च सोणियं च आहारेह अगामियं अडविं णित्थरह तं चेव सव्वं भणइ जाव अत्थस्स जाव आभागी भविस्सह। शब्दार्थ - ठावका - स्थापक-पारिवारिक कार्यों के नीति-निर्देशक, पइटावका - परिवार को राजादि के समक्ष प्रतिष्ठा दिलाने वाले। भावार्थ - धन्य सार्थवाह द्वारा यों कहे जाने पर उसके बड़े पुत्र ने अपने पिता से कहा - तात! आप हमारे पिता, गुरु, जन्मदाता, देव स्वरूप, स्थापक, प्रतिष्ठापक, संरक्षक एवं संगोपक हैं। इसलिए तात! हम आपके जीवन का व्यपरोपण कैसे करें - आपको कैसे मारें? आपके मांस और शोणित का कैसे आहार करें? इसलिए पिता श्री मेरे मांस और रक्त से अपनी भूख प्यास शांत करें, दुर्गम जंगल को पार करें। यहाँ वह सब कथनीय है, जो पूर्व सूत्र में कहा गया है यावत् अर्थ, धर्म एवं पुण्यात्मक जीवन जीओगे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
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