SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 310
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुंसुमा नामक अट्ठारहवां अध्ययन - विजय की मृत्यु : चिलात उत्तराधिकारी २८१ KEEREaCccceDECEEEEEEEEEEEEEacksonakacococcccccccccs भावार्थ - किसी समय चोराधिपति विजय मरण को प्राप्त हुआ। तब उसके अनुयायी पांच सौ चोरों ने विजय सेनापति का बड़ी ही ऋद्धि-सत्कार के साथ दाह संस्कार किया एवं अन्य मृतक संबंधी कार्य किए। तदुपरांत बीतते समय के साथ वे शोक रहित हो गए। (१८) तए णं ताइं पंचचोरसयाई अण्णमण्णं सद्दावेंति २ त्ता एवं वयासी-एवं खलु अम्हं देवाणुप्पिया! विजय चोरसेणावई कालधम्मुणा संजुत्ते। अयं च णं चिलाए तक्करे विजएणं चोरसेणावइणा बहूओ चोरविजाओ य जाव सिक्खाविए। तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया! चिलायं तक्करं सीहगुहाए चोर पल्लीए चोर सेणावइत्ताए अभिसिंचित्तए - त्तिक? अण्णमण्णस्स एयमझु पडिसुणेति २ त्ता चिलायं (तीए) सीह गुहाए (चोर पल्लीए) चोरसेणावइत्ताए अभिसिंचंति। तए णं से चिलाए चोर सेणावई जाए अहम्मिए जाव विहरइ। भावार्थ - तदनंतर पांच सौ चोर आपस में मिले और परस्पर बोले - देवानुप्रियो! हमारा सेनापति विजय कालधर्म को प्राप्त हो गया है। इस चिलात तस्कर को हमारे सेनापति ने बहुत सी चोर विद्याएं यावत् मायाचार, छलकपट सिखला दिए थे। अतः यही उचित होगा कि हम चिलात को इस चोर पल्ली का सेनापति अभिषिक्त करें - इसे सेनापति बना लें। वे सभी इस पर सहमत हो गए और चिलात का सिंह गुफा चोरपल्ली के सेनापति के रूप में चयन किया। ... यों चिलात चोर सेनापति बन गया। वह अति पाप पूर्ण यावत् दुष्टता पूर्ण चौर्य कर्म आदि करता हुआ रहने लगा। (१६) तए णं से चिलाए चोर सेणावई चोरणायगे जाव कुंडगे यावि होत्था। से णं तत्थ सीहगुहाए चोरपल्लीए पंचण्डं चोरसयाण य एवं जहा विजओ तहेव सव्वं जाव रायगिहस्स णयरस्स दाहिणपुरथिमिल्लं जणवयं जाव णित्थाणं णिद्धणं करेमाणे विहरइ। ___ भावार्थ - चोर सेनापति चिलात यावत् बांस समूह के प्राकार आदि से परिवृत्त होता हुआ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy