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________________ सुसुमा नामक अट्ठारहवां अध्ययन - चोराधिपति विजय तथा उसका दुर्जेय अड्डा २७७ KEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEKSERIEEEEEEEEEEEEEEEEER भावार्थ - फिर वह दासपुत्र सार्थवाह द्वारा अपने घर से निकाल दिए जाने पर राजगृह । नगर के तिराहों यावत् पथों, मार्गों, गलियों आदि में देवालयों, सभा स्थानों, प्रपाओं, द्यूतगृहों में, वेश्याओं के कोठों में तथा मदिरालयों में यथेच्छ-जहाँ चाहे, भटकने लगा। इस प्रकार वह दासपुत्र चिलात् निरंकुश, अनिवारित, स्वच्छंद, उच्छृखलता पूर्वक विहरणशील, मदिरा पायी, चोरी में निरत, मांस भोजी, वेश्या एवं परस्त्रीगामी हो गया। चोराधिपति विजय तथा उसका दुर्जेय अड्डा (१०). तए णं रायगिहस्स णयरस्स अदूरसामंते दाहिणपुरत्थिमे दिसीभाए सीहगुहा णामं चोरपल्ली होत्था विसमगिरिकडगको (डं)लंबसण्णिविट्ठा वंसीकलंक पागारपरिक्खित्ता छिण्णसेलविसमप्पवायफरिहोवगूढा एगदुवारा अणेगखंडी विदितजण-णिग्गमप्पवेसा अन्भिंतरपाणिया सुदुल्लभजलपेरंता सुबहुस्सवि कूवियबलस्स आगयस्स दुप्पहंसा यावि होत्था। __ शब्दार्थ - चोरपल्ली - चोरों का अड्डा, गिरिकडगकोलंब - पर्वत के मध्यवर्ती भाग के किनारे पर, वंसीकलंक - बांसों का समूह, छिण्ण - अनेक भागों में बंटे हुए, पवाय - गड्डा, फरिहोवगूढा - खाई से घिरी हुई, अणेगखंडी - रक्षा निमित्त निर्मित अनेक स्थान, कूवियबलस्सचोरों की खोज में आई हुई सेना का, दुप्पहंसा - जिसको ध्वस्त न किया जा सके। 'भावार्थ - उस समय राजगृह नगर से न अधिक दूर न अधिक समीप दक्षिण पूर्व दिशाआग्नेय कोण में सिंह गुफा नामक चोरपल्ली थी। वह ऊंचे-नीचे पर्वत के मध्यवर्ती भाग के किनारे पर स्थित थी। उसके चारों ओर उगे हुए बांसों का समूह ही उसे परकोटे के रूप में घेरे हुए था। अनेक भागों में बंटे हुए पर्वत के मध्यवर्ती स्थानों में विद्यमान गड्ढे ही उसकी खाई थी। उसमें आने जाने हेतु एक ही दरवाजा था। वह रक्षार्थ बनाए हुए अनेक छोटे-छोटे स्थानों से निर्मित थी। भली भांति परिचितजनों का ही उसमें आना-जाना संभव था। उसके भीतर ही जल व्यवस्था थी। . उसके बाहर पानी दुर्लभ था। वह इतनी सुरक्षित थी कि चोरों की खोज में आई हुई बड़ी सेना द्वारा भी उसका ध्वस्त किया जाना संभव नहीं था। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
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