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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
की खोज की यावत् उस पर सवार होकर यहाँ पहुँचे। फिर आपके बल की परीक्षा लेने हेतु हमने नौका को छिपा दिया तथा आपकी प्रतीक्षा करते हुए यहाँ स्थित रहे। वासुदेव का कोपःपाण्डवों का निर्वासन
(२०८) तए णं से कण्हे वासुदेवे तेसिं पंचण्हं पंडवाणं एयमढे सोचा णिसम्म आसुरुत्ते जाव तिवलियं एवं वयासी-अहो णं जया मए लवण समुदं दुवे जोयणसयसह(स्सा)स्सवित्थिण्णं वीईवइत्ता पउमणाभं हयमहिय जाव पडिसेहित्ता अवरकंका संभग्ग० दोवई साहत्थिं उवणीया तया णं तुब्भेहिं मम माहप्पं ण विण्णायं इयाणि जाणिस्सह-त्तिकटु लोहदंडं परामुसइ पंचण्हं पंडवाणं रहे चूरेइ २ त्ता णिव्विसए आणवेइ २ त्ता तत्थ णं रहमद्दणे णामं कोड्डे णिविटे।
शब्दार्थ - णिव्विसए - निर्वासन, कोड्डे - नगर।
भावार्थ - कृष्ण वासुदेव पांचों पांडवों का यह कथन सुनकर अत्यन्त रुष्ट, कुद्ध हुए। ललाट में तीन सल उभर आए और बोले - अहो! जब मैंने दो लाख योजन विस्तीर्ण लवण समुद्र को पार किया अश्व गजादि युक्त चतुरंगिणी सेना सहित राजा पद्मनाभ को पराजित कर दिया। अमरकंका को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला। द्रौपदी को तुम्हारे हाथों में सौंप दिया। तब भी तुम मेरा सामर्थ्य नहीं जान पाए। अब जान लो। यों कहकर उन्होंने लोह का दण्ड लिया - पांचों पाण्डवों के रथ को चूर-चूर कर डाला और उन्हें देशनिर्वासन की आज्ञा दी। ऐसा कर वहाँ
रथमर्दन नामक नगर की स्थापना की।
- (२०६) तए णं से कण्हे वासुदेवे जेणेव सए खंधावारे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता सएणं खंधावारेणं सद्धिं अभिसमण्णागए यावि होत्था। तए णं से कण्हे वासुदेवे जेणेव बारवई णयरी तेणेव उवागच्छइ २ ता अणुप्पविसइ।
भावार्थ - कृष्ण वासुदेव अपने पड़ाव में आए और सेना से मिल गए। तत्पश्चात् वहाँ से द्वारका नगरी की ओर चले, यथा समय वहाँ पहुँचे नगरी में प्रविष्ट हुए।
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