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________________ २२४ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र राजा पद्मनाभ को चुनौती (१७६) तए णं से कण्हे वासुदेवे चाउरंगिणी सेणं पडिविसजेइ २ ता पंचहिं पंडवेहिं सद्धिं अप्पछट्टे छहिं रहेहिं लवण मुई मज्झमझेणं वीईवयइ २ ता जेणेव अवरकंका रायहाणी जेणेव अवरकंकाए रायहाणीए अग्गुजाणे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता रहं ठवेइ २ ता दारुयं सारहिं सहावेइ २ ता एवं वयासी - भावार्थ - कृष्ण वासुदेव ने चतुरंगिणी सेना को वापस लौटाया। पाँच पांडवों एवं स्वयं रथारूढ होकर, लवण समुद्र के बीचोंबीच होते हुए अमरकंका राजधानी पहुँचे। बहिरवर्ती मुख्य उद्यान में ठहरे। कृष्ण वासुदेव ने अपने सारथी दारूक को बुलाया और कहा। (१८०) गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया! अवरकंकारायहाणिं अणुप्पविसाहि २ त्ता पउमणाभस्स रण्णो वामेणं पाएणं पायपीढं अक्कमित्ता कुंतग्गेणं लेहं पणामेहि तिवलियं भिउडिं णिडाले साहटु आसुरुत्ते रुढे कुद्धे कुविए चंडिक्किए एवं व० हं भो पउमणाभा! अपत्थिय पत्थिया! दुरंतपंतलक्खणा! हीणपुण्ण चाउद्दसा सिरीहिरिधीपरिवज्जिया! अज्ज ण भवसि किण्णं तुमं ण याणासि कण्हस्स वासुदेवस्स भगिणिं दोवई देविं इहं हव्वमाणमाणे? तं एयमवि गए पच्चप्पिणाहि णं तुमं दोवई देविं कण्हस्स वासुदेवस्स अहव णं जुद्धसज्जे णिग्गच्छाहि एस णं कण्हे वासुदेवे पंचहिं पंडवेहिं सद्धिं अप्पछट्टे दोवईए देवीए कूवं हव्वमागए। ____ भावार्थ - देवानुप्रिय! तुम अमरकंका राजधानी में जाओ। राजा पद्मनाभ के पादपीठ को अपने पैर से अवक्रांत करो - ठोकर मारो। भाले के अग्र भाग से यह पत्र दो। ललाट पर त्रिवलित (तीन) भृकुटी चढ़ाकर अत्यंत रोष, क्रोध, प्रचंड कोप दिखलाते हुए यों कहो - मौ को चाहने वाले! अभागे! पुण्यहीन कृष्ण चतुर्दशी को जन्मे! कांति-लज्जा-बुद्धि से परिवर्जि। पद्मनाभ! आज तू बच नहीं पायेगा। क्या तुम नहीं जानते कि तुमने कृष्ण वासुदेव की बहिन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
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